*”झुरमुट”*
“झुरमुट”
बांसों के झुरमुट साये में बैठे हुए ,
सांझ सबेरे चिड़िया जब चहचहाती।
रैन बसेरा ढूढ़ते हुए झुरमुटों में ,
नीड़ बना जीवन सुरक्षित कर जाती।
झुरमुट के साये में बैठ हुए …! !
बाड़े में उग आते जब बांसों के झुरमुट ,
जो नव अंकुर पौधों को कंधे पे उठाते।
कुछ तेजी से बढ़ते जाते कुछ पीछे रह छोटे ही रह जाते।
बांसों की टहनियों शाखाओं को क्या मालूम है,
जीवन की अंतिम यात्रा का बोझ इन्हीं कंधो पे उठाते जाते।
झुरमुट के साये में बैठे हुए….! !
बांसों के ऊँचे झुरमुट खड़े हुए ,
कभी पनपते कभी जमीन से उखाड़ फेंक दिये जाता।
बांसों के झुरमुट की अधूरी कहानी ,
कभी रोते कभी उखड़ने का दर्द सहते जाता।
बाँस के झुरमुटों को चुनकर जब बेच दिया जाता।
अपने मूल्यों का एहसास करा मौन धारण कर खड़ा ही कुछ कह न पाता।
झुरमुट के साये में बैठे हुए…! !
भविष्य न जाने कहाँ से कब कैसे खींच ले जाएगा।
दायित्वों को निभाते हुए आगे निर्बल या सबल बन जाएगा।
क्या गलत क्या सही दिशा चुनना ,
सही राह आसान बतलायेगा।
सोचता है आखिर उबड़ खाबड़ जमीन पर कब तक टिक पाएगा।
जीवन लक्ष्य साधे हुए ,क्या लाया था और क्या ले जाएगा।
खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही चला जाएगा।
झुरमुट के साये में बैठे हुए…! !
शशिकला व्यास ✍️
स्वरचित मौलिक रचना