झुग्गी झोपड़ी के गरीब बच्चे की अभिलाषा व शिक्षा के लिए गुहार
झुग्गी झोपड़ी के गरीब बच्चे की अभिलाषा व शिक्षा के लिए गुहार
शहरों में अधिकतर चौराहों के आसपास कई छोटी-छोटी बस्तियां देखने को मिलती है जो अक्सर घास-फूस व कच्ची मिट्टी की बनी होती है। इन्हें झुग्गी झोपड़ी कहा जाता है। उनमें रहने वाले लोगों के घरों की छतों पर सीमेंट और लोहे की चद्दर की अपेक्षा पॉलीथिन या बासँ की होती है ।जो प्रत्येक मौसम में बदलनी पड़ती हैं। बस्तियों में रहने वाले ज्यादातर लोगों के पास अपना व्यवसाय या नौकरी पैसा नहीं है । ये लोग काम की तलाश में इधर उधर भटकते रहते हैं । कई बार तो दिन भर काम ना मिलने की वजह से इन्हें खाली हाथ वापस लौटना पड़ता है । अशिक्षा और बेरोजगारी की वजह से इन लोगों को बच्चों की शिक्षा की भी ज्यादा परवाह नहीं रहती है । इन लोगों के बच्चे अधिकतर सुख सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं । सही मायने में ज्यादातर बच्चों को स्कूल देखने व जाने की सुविधा भी नसीब नहीं हो पाती है । मूलभूत सुविधाओं के नाम पर उन्हें रोटी , कपड़ा और मकान जैसी आवश्यक चीजें भी नहीं मिल पाती । बच्चों के तन पर पूरे कपड़े कभी भी दिखाई नहीं पड़ते । इन बच्चों को केवल भूख से बचने के अलावा और कुछ भी नहीं सिखाया जाता । कभी-कभी समय निकालकर मैं भी इन बच्चों को शिक्षा का पाठ पढ़ाने के लिए चला जाता हूं । झुग्गी झोपड़ी के बच्चों से मिलने के बाद मुझे आभास हुआ की शिक्षा इन के लिए कितनी आवश्यक है । बच्चों के चेहरों की मासूमियत अक्सर यही सवाल पूछती है कि क्या हमें शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है ? ये बच्चे रास्ते से आती-जाती स्कूल की बसों में पोशाक पहने बाकी स्कूलों के बच्चों को देख कर बहुत खुश होते हैं और दूर से हाथ हिला कर उनका अभिनंदन भी करते हैं । बच्चों के मुख से तो कोई सवाल नहीं निकलते लेकिन मन ही मन बहुत से ख्वाब चेहरे से साफ साफ झलकते हैं । इन बच्चों की भी इच्छा होती है कि इनके लिए कोई ऐसा शिक्षण संस्थान हो जहां उन्हें शिक्षा का पाठ पढ़ाया जा सके । शहर के अलग-अलग चौराहों पर स्थित इन झुग्गी झोपड़ियों के बच्चे दूरगामी क्षेत्रों व गांव की सरकारी शिक्षण संस्थानों तक पैदल चलकर नहीं जा सकते और न कि उनके माता-पिता के पास इतना समय है कि वो इन्हे शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई के लिए छोड़ आएं । क्योंकि वो तो केवल अपना पेट भरने में जुटे रहते हैं । शिक्षा बालक का एक मौलिक अधिकार है । झुग्गी झोपड़ी में रहने वाला बच्चा कई बार इस अधिकार से वंचित रह जाता है । शहर के कुछ क्षेत्रों में तो समाज सुधारकों द्वारा इन बच्चों की शिक्षा हेतु निशुल्क झुग्गी-झोपड़ी स्कूल चलाए जा रहे हैं जिनमें मुझ जैसे कुछ अध्यापक अपना समय निकालकर सहयोग दे रहे हैं , लेकिन प्रत्येक क्षेत्र में यह सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाती । पिछले नौ वर्षों से रेवाड़ी में एस एस जे जे झुग्गी-झोपड़ी स्कूल चलाने वाले मेरे सहयोगी श्री नरेंद्र गुगनानी जी ने बताया कि ऐसे स्कूलों की संख्या बहुत कम है । वो झुग्गी झोपड़ी के बच्चों को सरकारी स्कूल में शिक्षा के लिए प्रेरित करते हैं और उनके प्रयासों से लगभग 700 से 800 बच्चे सरकारी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं । इन बच्चों व उनके अभिभावकों की मनोदशा जानने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इस क्षेत्र में एक सकारात्मक पहल की जा सकती है । बातचीत के बाद मेरे दिमाग में एक ऐसी पाठशाला की कल्पना उमड़ी है जिसे मोबाइल स्कूल या चलती फिरती पाठशाला भी कहा जा सकता है । वर्तमान में सरकार द्वारा समय-समय पर विज्ञान व अन्य विषयों की प्रदर्शनियों के लिए मोबाइल गाड़ियों के माध्यम से शिक्षा दी जा रही है। उसी तरह जिला स्तर या खंड स्तर पर ऐसी पाठशालाओं का आयोजन किया जा सकता है जो इन झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले बच्चों तक शिक्षा पहुंचा सके । इसमें जिला शिक्षा अधिकारी दो या तीन अध्यापकों को विशेष कार्यभार देकर घंटे दो घंटे की कक्षाओं के माध्यम से विद्यार्थियों को शिक्षा दे सकते हैं । यह कार्य एक सही समय पर योजना के साथ पूरा किया जा सकता है । इस कल्पनात्मक मोबाइल स्कूल में ब्लैक बोर्ड, चॉक, डस्टर, किताबें व बैठने के लिए भी उचित स्थान की व्यवस्था की जाएगी ।