जड़े होठों पर ताले…:शाश्वत कुण्डलिया छंद
बहता क्योंकर अनवरत पक्षपात का द्रव्य.
अर्जुन अवसर पा रहा, हाथ मले एकलव्य..
हाथ मले एकलव्य, जड़े होठों पर ताले.
किन्तु द्रोंण द्रव पियें मगन होकर मतवाले,
अर्जुन का हो नाम, दक्ष दूजा ही रहता.
अब तो सुधरें द्रोंण, नष्ट हो द्रव यह बहता..
इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’