ज्वाला प्रचंड हूँ
अब बीत चुका वह समय जब
मेरी दुनिया थी घर आंगन।
हालातों ने किया विवश है
तब मैंने संभाला रणआंगन।
मर्यादा की ओट लिए
मैं अग्नि प्रखंड हूँ
भारत की प्रबला नारी हूँ
मैं ज्वाला प्रचंड हूँ
अबला कह नारी को जग ने
चहुंओर किया था प्रतिबंधित।
घूंघट पर्दा और मर्यादा की
सीमा में किया था अनुबंधित।
सदियों से पुरुषों के हाथों
हुई मैं खंड-खंड हूँ
भारत की प्रबला नारी हूँ
मैं ज्वाला प्रचंड हूँ
ओ अधम पुरुष तू दंभ न कर
विस्मृत न कर अपनी संस्कृति।
वीरांगना है भारत की नारी
कर स्मरण दुर्गा की शक्ति।
तेरे झूठे अहं को देने
को आई मैं दंड हूँ
भारत की प्रबला नारी हूँ
मैं ज्वाला प्रचंड हूँ।
सिंह पुत्री मैं गर्जन सुन मेरा
चिंगारी नहीं मैं हूँ ज्वाला
दावानल में दहकेगा पापी
बंदूक का तू बनेगा निवाला
जो न कभी निस्तेज हो ऐसी
ज्योति मैं अखंड हूँ
भारत की नारी हूँ मैं
ज्वाला प्रचंड हूँ
मुझको न कहना शर्मीली
घूंघट सिर्फ इक मर्यादा है।
पापी दुष्टों को न बख्शूंगी
मेरा समाज से यह वादा है।
दंभ दर्प और अभिमानी
का तोड़ती घमंड हूँ
भारत की प्रबला नारी हूँ
मैं ज्वाला प्रचंड हूँ
पास भी फटकने से बचना
चूड़ी संग हाथ में है बंदूक।
नारी की मर्यादा को न छूना
है मेरा भी निशाना अचूक।
नव युग की हूँ वीर स्त्री मैं
अस्त्र-शस्त्र से सम्बद्ध हूँ
भारत की प्रबला नारी हूँ
मैं ज्वाला प्रचंड हूँ।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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