ज्ञान वाणी।।
माया ऐसी मोहिनी, जैसी मीठी खाँड़।
एक नगर में धंदतु नाम के एक धर्मात्मा सेठ रहते थे । एक बार वहाँ नट ने आकर खेल दिखाया । सेठ का इकलौता पुत्र इलायती कुमार उस नट की लड़की के रूप पर आसक्त हो गया और उससे विवाह करवाने के लिए उसने सेठ से निवेदन किया । सेठ ने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं माना । बेटे की हठ देख सेठ ने भगवान से प्रार्थना कीः ‘प्रभु ! अब तू ही ऐसी कुछ कृपा करना कि मेरे बेटे का भला हो ।’
ईश्वर पर विश्वास रख से सेठ निश्चिंत हो गये और विवाह-प्रस्ताव लेकर नट के पास पहुँचे । नट को सारी बात बतायी तो वह बोलाः “सेठ जी ! आपका बेटा 12 वर्ष नटविद्या सीखकर जब तक किसी राजा से पुरस्कृत न हो जाय तब तक मैं अपनी बेटी का विवाह उससे नहीं कर सकता ।”
कामासक्त युवक लोक-लज्जा छोड़ के उस नट के साथ रह के नटविद्या सीखने लगा । 12 वर्ष में वह नटविद्या में निपुण हो गया ।
एक दिन वह काशी के राजा के दरबार में अपनी कला दिखा रहा था । उसकी कला राजा को इतनी तो भायी कि खेल पूरा होने के पहले ही राजा ने पुरस्कार की घोषणा कर दी । युवक एक बहुत बड़े स्तम्भ पर चढ़ के कला दिखा रहा था । उसी समय दरबार में एक चित्ताकर्षक आवाज सुनाई दीः “भिक्षां देहि ।”
दासी एक बड़े थाल में सामग्री लेकर महात्मा को देने पहुँची तो उन्होंने कहाः “मुझे तो अपनी भूख के अनुसार थोड़ा ही भोजन चाहिए ।”
दासी आग्रह कर रही थी तथा संत मना कर रहे थे । संत के मधुर वचन इलायती कुमार के कानों में पड़े तो वह उनकी ओर देखने लगा । संत ने एक मीठी दृष्टि उस पर डाल दी ।
संतकृपा व सेठ की प्रभु-प्रार्थना के प्रभाव से सेठपुत्र को विचार आया कि ‘ये संत बार-बार आग्रह करने पर भी स्वादिष्ट राजवी मिष्ठान्नों में भी आसक्त नहीं हो रहे हैं और मैं आसक्तिवश यह कामना लिए बैठा हूँ कि इस नटनी के साथ मेरा विवाह हो जाय, धिक्कार है मुझे ।
वह तुरंत ही खम्भे से नीचे उतरा और उन महापुरुष के चरणों में पड़ गया ।
नट ने आकर इलायती कुमार से कहाः “अब मैं तैयार हूँ अपनी बेटी से विवाह करवाने को ।”
संत-दर्शन से सेठपुत्र का मन बदल चुका था । वह बोलाः “तेरी लड़की एक साधारण नटनी है, जिसकी आसक्ति में फँसकर मैं 12 साल से बंदर की तरह नाच रहा हूँ परंतु यह मायारूपी नटनी तो कितने ही जन्मों से नचा रही है और समस्त त्रिलोकी को नचा रही है । अब मैं इसके खेल से पार होने के लिए इन महापुरुष की शरण में ही रहूँगा।”
मायारूपी नटनी के खेल से पार होने के लिए संत कबीर जी ने कहा हैः-
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड।
सतगुरु की किरपा भई, नहीं तौ करती भांड॥
कबीर माया मोहिनी – माया (संसार का आकर्षण) बहुत ही मोहिनी है, लुभावनी है जैसी मीठी खांड – जैसे मीठी शक्कर या मीठी मिसरी, सतगुरु की किरपा भई – सतगुरु की कृपा हो गयी (इसलिए माया के इस मोहिनी रूप से बच गया)
नहीं तौ करती भांड – नहीं तो यह मुझे भांड बना देती।
?हर हर महादेव ?
? जय श्रीराम ?
?जय श्री कृष्णा ?