अज्ञेय अज्ञेय क्यों है – शिवकुमार बिलगरामी
मानव मस्तिष्क बहुत ही जिज्ञासु है । इसलिए मनुष्य निरंतर अपने आसपास की दुनिया को जानने का प्रयास करता रहता है । उसने अपने प्रयासों से न केवल संसार अपितु संपूर्ण ब्रह्मांड से संबंधित बहुत से भेदों को जान लिया है । जिन बातों को मनुष्य जान गया है उन्हें ज्ञात कहते हैं । जो ज्ञात है वह सब विज्ञान की परिधि में आता है । लेकिन संसार में बहुत सी ऐसी बातें / रहस्य हैं जिन्हें अभी तक मानव मस्तिष्क समझ नहीं पाया है। बहुत सी परिपाटियां , रीति-रिवाज और धर्म-कर्म ऐसे हैं जो अस्तित्व में तो हैं लेकिन उनके अस्तित्व में रहने का कारण समझ में नहीं आया है । क्योंकि इनका वैज्ञानिक कारण ज्ञात नहीं हो पाया है इसलिए इन्हें आस्था और विश्वास की श्रेणी में रखा गया है । आस्था और विश्वास ही धर्म की बुनियाद है। इस तरह हम कह सकते हैं कि अज्ञात ही धर्म है। पाश्चात्य संस्कृति में Known और Unknown शब्द ही हैं । लेकिन भारतीय संस्कृति में ज्ञात और अज्ञात के अतिरिक्त एक शब्द और भी है -अज्ञेय । साधारण भाषा में इसका अर्थ है ज्ञात और अज्ञात की परिधि से बाहर । यह एक तरह की उस पराशक्ति या दिव्य शक्ति की अनुभूति अथवा बोध की ओर इंगित करता है जो किसी आत्मा का परमात्मा से एकाकार होना बताता है । क्योंकि इसमें साधक जिस ब्रह्म की खोज के लिए निकलता है अंततः वह उसी ब्रह्म में लीन हो जाता है । उसका अलग अस्तित्व शेष नहीं रहता है कि वह बता सके कि उसने क्या पाया अथवा उसकी अनुभूति क्या है । इसे हम एक उदाहरण के माध्यम से यूं समझ सकते हैं । जैसे यदि चीनी से बने किसी खिलौने को किसी धागे में बांधकर गहरे सागर में उसकी गहराई नापने के लिए प्रयोग किया जाये तो खिलौना चार-पांच सौ मीटर तक अपना अस्तित्व बचाए रख पाएगा लेकिन अधिक गहराई में उतरते ही वह खिलौना समुद्र के पानी में घुल जाएगा और स्वयं सागरमय हो जाएगा । इस तरह चीनी का खिलौना स्वयं अस्तित्व विहीन हो जाएगा और सागर की गहराई चीनी के इस खिलौने के लिए अज्ञेय बनी रहेगी । ठीक इसी तरह जब कोई आत्मा परमात्मा की खोज में निकलती है तो वह अंततः परमात्मा में लीन हो जाती है और परमात्मा संसार के लिए सदैव अज्ञेय बना रहता है ।
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