जो मैं ऐसा जनता
बात उन दिनों की है जब मैं रानीखेत में नियुक्त था , वहां की खूबसूरत वादियों में स्थित अस्पताल के चारों ओर बड़ा मनोरम दृश्य था दूर तक हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियां दिखाई देती थीं तथा अस्पताल के चारों ओर चीड़ और देवदार के घने पेड़ों के झुरमुट थे । वहां ओपीडी के समय में भी अक्सर धुंध जैसा कोहरा उड़ता हुआ दिन के समय में भी ओपीडी कक्ष के अंदर तक प्रवेश कर जाता था । ऐसे ही एक किसी सुहानी सुबह को एक नवयौवना मरीज़ा बनकर मेरे ओपीडी में आई , उसने काफी गहरा मेकअप कर रखा था उसके काले घने लम्बे बाल यू की बनावट में कटे थे और उसके कानों को ढक रहे थे ।उसकी पलकें घनी बोझिल और आंखें सुरमई थीं। उसके गालों की हड्डियां उभरी हुई तथा गाल पिचके हुए थे । हंसते मुस्कुराते हुए उसके गालों में गड्ढा पढ़ता था उसके होंठ रक्तिम आभा लिए हुए थे । वह चटक रंग का भव्य सलवार सूट और मैचिंग का कार्डिगन पहन कर आयी थी । उस दिन उसे मामूली से जुखाम की तकलीफ थी अतः मैंने उसे कुछ दवाइयां लिखकर भेज दिया ।दो-चार दिन बाद वह मुझे फिर वैसी ही आकर्षक वेशभूषा में दिखाने आई और दवा ले कर चली गई । अब यह सिलसिला हर दो-चार दिन बाद दोहराया जाने लगा । वह ऐसे ही सज धज कर आती और दवा लेकर चली जाती थी ।
एक बार जब वह आई तो दिखाने के बाद ओपीडी से बाहर जाने से पहले थोड़ा झिझक कर मुस्कुराई और पलट कर बोली डॉक्टर साहब मैं लड़की नहीं लड़का हूं , मैं पाकिस्तान से आया हूं वहां लोग ऐसे ही रहते हैं ।
मैं उसके लचक कर जाते हुए पृष्ठ भाग को निहार रहा था । उसके बाद वह फिर कभी नहीं दिखाने आया । हमारी डॉक्टरी की पढ़ाई में हमें यह सिखाया जाता है कि हम खाली इंसानी हड्डियां देख कर भी नर और मादा का भेद समझ लें , पर उस दिन उस साक्षात सजीव इंसानी मूरत को बार बार सामने देख कर भी मैं उसका लिंग भेद न कर पाने की अपनी इस त्रुटि पर मैं हतप्रभ था ।