जो मुझे तुमसे मिला है मैं वही लौटा रहा हूं।
जो मुझे तुमसे मिला है मैं वही लौटा रहा हूँ
मैं नहीं शंकर हलाहल जिसके कण्ठों में समाया
निर्मलित हैं नेत्र जिसके नीलकंठी जो कहाया
एक साधारण मनुज हूँ कैसे कुछ अदभुद करूँगा
जल रहीं ज्वालायें उर में मन्द उनको कर न पाया
मत मुझे अचरज से देखो कण्ठ यदि तीखा हुआ है
सुर मुझे सिखलाये थे जो मैं उन्हें दोहरा रहा हूँ
जो मुझे ——————————-
घाव गहरे हो रहें हैं भोलेपन में जो गहा है
मैं तुम्हे कैसे बताऊ क्या नहीं टूटा ढहा है
एक दर्पण टूट कर सौ दर्पणों में सामने है
एक ही पीड़ा को मैंने कोटि रूपों में सहा है
मत कहो क्यों फूल कम हैं शूल की भरमार क्यों है
जो कभी मुझको दिया था हार वह पहना रहा हूँ
जो मुझे———————————-
इस तरह मत देखिये न राम हूँ न श्याम हूँ मैं
कोटिशः पर्याय जिसके एक ऐसा नाम हूँ मैं
हर ही जायँगे इक दिन आप मुझको खोजिए मत
मैं निराला हूँ समझ लें ख़ास भी हूँ आम हूँ मैं
गुण सभी अवगुण भरे हैं स्वयं को न पूर्ण कहता
मन के मर्मान्तक मथन से मैं गुजर कर आ रहा हूँ
जो मुझे तुमसे मिला है मैं वही लौटा रहा हूँ।