जो गए थे परदेश कमाने…
जो गए थे परदेश कमाने, गवाँ के लौट रहे हैं,
अपने अरमानों का दरिया, खुलेआम बहाकर लौट रहे हैं ।
ख़ून-पसीने से जो कमाया, लुटाकर लौट रहे हैं,
अमीरों की गलतियों से, आँसू बहाकर लौट रहे है ।
हुई है बेज़ार ज़िंदगी, उसे सँभाल कर लौट रहे है,
अब इस देश में रहना नहीं, प्रण लेकर लौट रहे हैं ।
दाना-दाना जोड़कर, रोटियाँ बनाकर लौट रहे हैं,
“आघात” दफ़न हुए हादसों में, ज़िंदगी को फ़नाकर लौट रहे हैं ।