जो उनसे पूछा कि हम पर यक़ीं नहीं रखते
ग़ज़ल
जो उनसे पूछा कि हम पर यक़ीं नहीं रखते
तो हँस के कहने लगे हां! नहीं नहीं रखते
वो जिसको शौक़ है ख़ाना-बदोशी का उसको
हम अपने दिल में तो हरगिज़ मकीं नहीं रखते
पलें जहाँ पे सपोले कलाई डसने लगें
कुशादा इतनी भी हम आस्तीं नहीं रखते
जहाँ पे झुकता है दिल सर वहीं पे झुकता है
हर एक दर पे तो हम ख़म जबीं नहीं रखते
ये चींटियाँ न कहीं पीछे अपने पड़ जायें
लबों पे अपने तभी अंग्बीं नहीं रखते
‘अनीस’ उनका फिसलना तो एक दिन तय है
जो अपने पाँव के नीचे ज़मीं नहीं रखते
– अनीस शाह अनीस
अंग्बीं=शहद