जैसे चंद्रमा का धर्म है शीतलता प्रदान करना
वो दो गरीब परिवार में जन्म लेकर;
एक हिन्दू, एक इस्लाम बनकर.
एक राम कहलाकर, दूजे रहीम कहाकर.
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एक पूस की रात, दाँत कटकटाती बात.
सप्ताह के दिन सात, कि सूखे पात से कैसे ठंढक काट.
फिर भी नहीं आग जली, तो शरीर गलनी थी, गली.
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पर आठवें दिन बनकर आई आखिरी दिन, कि साँसे गिन-गिन.
रामू चल बसे जीवनभर की गर्मी पाने, श्मशान की जनसंख्या बढ़ाने.
कि चिता जो जली, वही अलाव भली.
जेठ की दुपहरी, ताज संगमरमरी.
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लग रही लू की मरीचिका, कृष्ण की राधिका.
बाँस के पंखे की नहीं मिली झाप, नाली की पानी से उड़ रही थी भाप.
कि तोड़ दिया दम, इधर रहीमन भी छोड़ गम.
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बढ़ रहे हैं भीड़ पीछे-पीछे, ठंढा पाने दफ़न को भींचे-भींचे.
रहीम भी कब्रगाह में जमीन के अंदर, लिपटी श्वेत समंदर.
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दोनों अलग-अलग गए, दोनों ही ठंढ लगने से गए.
हमारी धन-बल से जब अपने-परायों की रक्षा ना हो,
धन-संचय से अच्छा तब करे भिक्षाटन लिए झुनझुना हो.
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मानव की आँख के बदले अगर काँच की लगाएंगे;
तो वो आँख होगी, पर देख नहीं पाएंगे.
कि आदमी के कलेजे के बदले वहाँ,
किसी भी धर्म के पूजास्थलों के प्रतीक लगाएंगे;
तो आदमी क्या जिंदा रह पाएंगे ?
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जिसतरह सूर्य का धर्म है- ताप देना, भाप देना.
चंद्रमा का धर्म है- शीतलता देना, ऊष्मा से राहत देना.
धरती का धर्म- अन्न देना, शांत मन देना.
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काश ! मानव भी समझते कि मानव का धर्म है-
दुःखी मानवों की सेवा ही करना, कर्मयोगियों की मेवा नहीं छीनना.
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