जैसे उँचे पेड पर,कच्चे पिंड खजूर
मुझको उसकी बात ये, लगी अनोखी खास!
छोड गया जाते समय, खुद को मेरे पास!!
लगते वही सुहावने,बजें ढोल जो दूर!
जैसे ऊँचे पेड़ पर, कच्चे पिंडखजूर !!
निकलूँ कैसे मैं बता, घर से आज अजीज!
वो भी भाई ले गया, जो थी एक कमीज!
जैसे जैसे कायदे, हमने किये इजाद !
वैसे वैसे हो गया, मानव भी उस्ताद !!
चाहे जितना भी रहो , तुम मानव मुस्तैद!
होना मुँह मे काल के, तुुम्हे एक दिन कैद! !
रमेश शर्मा