जे जाड़े की रातें (बुंदेली गीत)
हमखों लगें
गुरीरीं भौतऊ,
जे जाड़े की रातें ।
चार जनौं ने
बारो कौंड़ौ,
बैठे आगी तापें,
क्याऊँ की ईंट
क्याऊँ कौ गारौ
बैठे राग अलापें ।
सुक्क-दुक्ख कीं
राजनीत कीं
धरम-करम की बातें ।
हाथ सेंक लय,
पाँव सेंक लय,
पाछें पींठ जुड़ानी ।
लौट किसा फिर
मईं खों आ गई
जाँ खों बै रव पानी ।
दारू पी कें
आ गव कलुआ
पर गईं दो-दो लातें ।
बड़ी पौर में
बिछौ डोरिया
कमरा ओड़ें बैठे ।
बड्डा आ गय,
कक्कू आ गय,
आ गय लुहरे,जेठे ।
चिलम,तमाखू,
चाय गुरीरी
बटन लगीं सौगातें ।
ओस टबक रई
पपरी जम गई
जूड़े नदिया,नरवा ।
ख्वार कुकर गई
कड़े बायरे
जूड़े हो गय फरवा ।
पाँव कुकेरे
औंदे पर रय
तकिया धरकें छातें ।
हमखों लगें
गुरीरीं भौतऊ
जे जाड़े की रातें ।
०००
—– ईश्वर दयाल गोस्वामी ।