जेठ सोचता जा रहा, लेकर तपते पाँव।
जेठ सोचता जा रहा, लेकर तपते पाँव।
मिले गली आषाढ़ की, पा लूँ शीतल छाँव।।
गले लगा आषाढ़ को, कह दूँ अपनी पीर।
तुम्हीं सँभालो अब धरा, डिगता मेरा धीर।।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
जेठ सोचता जा रहा, लेकर तपते पाँव।
मिले गली आषाढ़ की, पा लूँ शीतल छाँव।।
गले लगा आषाढ़ को, कह दूँ अपनी पीर।
तुम्हीं सँभालो अब धरा, डिगता मेरा धीर।।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद