जूतों की मन की व्यथा
पैरो की है हम असली ढाल,
उनकी रखते हम रखवाल।
चलते चलते हम घिस जाते,
तब भी हम साथ निभाते।।
हमको सब बाहर छोड़ जाते,
अंदर वालो को तकते रहते।
खुद ड्राइंग रूम में बैठ जाते,
हमको दरवाजे पर छोड़ जाते।।
मार पिटाई जब कभी होती,
हमारी सहायता सब है लेते।
फिर क्यों करते हमारा अपमान
मनुष्य से ज्यादा क्या हम शैतान ?
जब हम नए नए है होते,
बड़े चाव से हमे पहनते।
जब हम पुराने हो जाते,
हमे बाहर फैंक दिए जाते।।
हमे पहन कर सभी इतराते,
पर हम कभी नही इतराते।
शोकेस में जब हम लगे होते,
ललचाई आंखो से देखे जाते।।
जब संसद में झगड़ा होता,
हमारा प्रयोग खूब है होता।
तब भी हम कुछ न कहते,
दुम दबाकर हम बैठ जाते।।
आर के रस्तोगी गुरुग्राम