जुर्म
दो अक्षर के इस शब्द से जिंदगी कई बिगड़ जाती है,
कभी बदले तो कभी बदलाव की वजह से,
जिंदगी में जुर्म की दस्तक हो जाती हैं,
मंशा अच्छी इसकी कभी होती नहीं,
पर कारण होते इसके लाखों हज़ार,
कभी जाति कभी इश्क़ तो कभी अपने ही कर देते
वार,
मुजरिम इसके पकड़े जाते और सुनवाई होती कई
बार,
बारी आती जब फैसले और सजा देने की,
तो न्याय देवी की आंखे बंद कर देते हर बार,
रेप हत्या चोरी डकैती और ना जाने कितने इसके
रूप होते,
घरेलू हिंसा तो कभी एडल्टरी भी इसमें शामिल हो
जाते,
जुर्म करता कोई नामचीन तो न्याय की भाषा बदल
जाती
पर जुर्म करता जब कोई आम इंसा तो सजाएं अनेक
दी जाती,
करता जो गुनाह उसे समाज से दादागिरी का लाइसेंस
दिलवाते,
गुनाह से नफ़रत ना करके लोग बेगुनाह से नफरत
जरूर करते,
कांड जब खुद करते तो नाम की खातिर शां से इसे
छुपाते,
पर जब करता कोई दूजा इसे तो इंसानियत का दावा
ठोकने आते,
कहानी शुरू हुई जो जुर्म की चाह कर भी खत्म कभी
ना होगी,
क्यूंकि हमारे द्वारा फैलाई गई गंदगी,
हमारे दिमाग और समाज से कभी ना साफ होगी।