जुगनूओं की रजाई
जुगनूओं की रजाई
घर खुली जगह
छत, पूरा आसमान
सोने को हरी-भरी दूब
ओढने को रजाई
चमकते जुगनूओं की।
फटी रजाई में कहीं-कहीं
झांकते स्वच्छ
श्वेत चांदी से सूखे मेघ
साथी की ना कोई चिन्ता
पवन हिलाए-डुलाए-नचाए
और उसकी लय पर थिरकता
ठीक वैसे ही
एक गरीब अधम मानव का
मैला-कुचैला नंगा शरीर
छप्पर की छत से
झांकते आसमान के तारे
बल्लरियों से घिरे
विरां में दूर-दूर तक
बस सुनसान जंगल
और एक मीठी सी आहट
दृगों से बहते पानी में
बह निकली मिन्नतें सारी
और उमड़ते शैलाब में
जो पूंजी, शेष जीवन था
वो भी मानो बह गया
वो अब लौट नही सकता
पानी तो आखिर पानी है।
पानी कैसे रूक सकता है।
कच्चा रास्ता हैं आंखें
पत्थरों तक को नही छोड़ता।
-ः0ः-
नवल पाल प्रभाकर