जुआरियों की बस्ती
ये शीर्षक आपको शायद अज़ीब लगे। मेरा गाँव को जुआरियों की बस्ती भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
जब से होश संभाला था ताश के पत्तों को पहचानने लगा था।
बचपन में एक बार चेचक निकल आयी थी तो दादी ने मन लगाने के लिए एक पुरानी ताश की गड्डी हाथ में थमा दी थी।
उस वक़्त ताश के पत्तो से मीनार या महल बनाता था और बिखर जाने से फिर समेट कर रख लेता था।
दादी अक्सर दोपहर मे पड़ोस में ताश खेलने जाया करती थी। हालांकि वो जुआ नहीं होता था।
ताश की गड्डी लगभग हर घर में जरूरी सामान की तरह मौजूद रहा करती थी।
भाइयों और बुज़ुर्गों से मैंने कई बार मज़ाक में कहते भी सुना था कि लड़का अगर कमाने लग जाये तो फिर वो ताश खेल सकता है।
मैंने पहली बार अपने भाइयों के साथ ताश तब खेली जब मैं बारहवीं में पढ़ता था और जेबखर्च के लिए एक आध ट्यूशन पकड़ ली थी।
उसके पहले भी मैं एक आध बार अपने दोस्तों के साथ सरस्वती पूजा के पंडाल में प्रतिमा के पीछे( हम छोटे छोटे आयोजको के लिए बनी जगह पर) भी ताश के जुए का आनंद ले चुका था।
कहने का तात्पर्य ये है कि ताश हमारे गांव में राष्ट्रीय खेल का रुतबा रखती थी।
कोई भी शादी ब्याह या बच्चे के जन्म का उत्सव ताश के पत्तो के बिना अधूरा लगता था।
हमारे गांव से अगर कोई बारात जाती तो वधु पक्ष वालों को स्वागत सत्कार में ज्यादा मेहनत की कतई जरूरत नहीं थी।
बस पान, सिगरेट और कुछ ताश की गड्डियां और समय समय पर चाय पूछ ली तो सत्कार लगभग पूरा हो जाता था।
इससे ज्यादा आवभगत से हमारे गांव के बाराती चिढ़ जाते थे क्योंकि इससे उनके ताश खेलने की अनवरत चलती गति में ख़लल पड़ता था।
एक शादी में तो ये हुआ कि वर माला का समय नजदीक आ गया। वधु पक्ष वाले हाथ जोड़े चलने का आग्रह कर रहे थे।
दूल्हा, दूल्हे का बाप और मेरे पुरोहित ताऊजी सब ताश खेलने में व्यस्त थे , कोई भी उठना नहीं चाह रहा था। अंत में दूल्हे को तो किसी तरह राजी किया गया कि वो तैयार हो जाये।
लड़के के बाप ने अपने होने वाले समधी को बुलाया ,मेरे ताऊजी की ओर इशारा करके कहा, ये पंडित जी हैं ,लड़के का बाप भी आप इन्ही को समझ लीजिए और शादी का कार्यक्रम आगे बढ़ाइये, मैं भी फेरों तक आने की पूरी कोशिश करता हूँ।
बहरहाल, ऐसा नहीं था कि वहाँ सिर्फ ताश का जुआ ही होता था।
बारिश के समय , बरसात किस वक़्त होगी इस पर भी दाँव लगते थे। कई लोग तो इतने विशेषज्ञ थे कि बादलों को देख कर बता देते थे कि बारिश ठीक कितने बजे होगी।
हम बच्चे भी बड़ो के पदचिन्हों का पालन करते हुए एक दूसरे से बराबर बराबर पैसे लेकर दीवार से सटे एक आयातकार घेरे में सारे पैसे फेंक कर,फिर बताए गए सिक्के पर निश्चित दूरी से पत्थर के बने एक गोल कंचे से निशाना लगाते थे। जिसका निशाना सबसे पहले लगा, सारे पैसे उसके हो जाते थे।
इसके अलावा सिक्के के निर्मित होने वाले साल का अंतिम अंक छुपा कर दूसरे से उसका अनुमान लगाने को कहना। अगर अनुमान सही निकला तो सिक्का उसका।
सिक्के को उछाल कर चित या पट आने पर भी हम बच्चे दाँव लगा लेते थे।
जुए की लगभग हर एक प्रजाति हमारे गाँव में किसी न किसी रूप मे विद्यमान थी।
उस जमाने में प्रतिवर्ष गांव की गौशाला में गोपाष्टमी का मेला लगता था । रंगकर्मी दल आकर नाटक का मंचन भी किया करते थे।
पर मुख्य आकर्षण ताश का जुआ और विभिन्न तरह के पैसों का दाँव लगाने वाले खेल ही होते थे।
ताश के लिए तो गौशाला के सारे कमरे खोल दिये जाते थे। हर बाजी पर, जीतने वाले को गौशाला के कोष में एक निश्चत राशि देनी होती थी। यह उत्सव दो से तीन दिनों तक चलता था। आस पास के गांव शहर के जुआरी भी उत्साह के साथ इसमें शिरकत करने आते थे
वैसे,मेरे गांव वाले जुए के लिए किसी खास मौके के मोहताज नहीं थे।
कुछ बरामदे और साहूकारों की गद्दियां , ताश की महफ़िलों से हर वक़्त गुलजार रहती थी।
कुछ पक्के जुआरियों को तो जगह की भी परवाह नहीं थी , वो तो खेतो और खुले मैदानों मे ईंट या अपनी चप्पल पर बैठ कर खेलने में भी गुरेज नहीं करते थे।
इस जुए की लत ने अदृश्य शक्तियों का सहारा भी लेना शुरू कर दिया। एक निराकार देवी भी लोगों के मन में अवतरित हुई, जिसे जुआरी लोग ‘भकभकिया माई” कहकर बुलाते थे।
मान्यता ये थी कि ये ताश या जुए की माता हैं। ताश के पत्ते खींचते वक़्त या दाँव लगाते वक़्त, भकभकिया माई का स्मरण व उच्चारण शुभ माना जाने लगा।
यदा कदा पुलिस का छापा भी पड़ा ,कुछ लोग जेल भी गए ,पर ये शौक बदस्तूर जारी रहता था।
कभी कभी इस खेल के दौरान अप्रत्याशित घटनायें भी हुईं।
मसलन,
एक पत्नी जो अपने पति की इस लत से खासी परेशान और नाराज़ चल रही थी, एक दिन घूँघट निकाल कर अपने पति के चिर परिचित अड्डे पर पहुँच गई। बाजी खत्म होते ही अपने पति की ओर इशारा कर के कहा कि इनके साथ मेरे भी पत्ते बांटो।
इस वाकये के बाद उस परिवार ने शर्मिंदगी की वजह से अगले दिन ही गाँव छोड़ दिया।
कुछ दिनों बाद फिर से वो अड्डा जब गुलज़ार हुआ तो लोगो के तेवर बदले हुए थे। एक दूसरे की टांग खीचते हुए पूछ रहे थे कि अपनी घरवाली से पूछ कर आये हो तो?
ताश का जुआ हमारे गांव मे उम्र और रिश्तों का लिहाज मिटाने में भी सहायक साबित हुआ। लत जब बराबरी पर उतर आती है तो पारस्परिक संबोधन भी सिर्फ नाम तक जाकर सिमट जाता है।
ऑफिसों में एक दूसरे को पहले नाम से संबोथन तो अब जाकर देखने को मिल रहा है, मेरे गांव वाले तो इसको पचास वर्ष पहले ही अपना चुके थे। वजह भी एक ही थी कि एक दूसरे से सहज हो सकें।
हुआ यूँ कि
एक बार मेरे बड़े भाई साहब गांव में अपने रिश्तेदार से मिलने गए, साथ में उनके ममेरे छोटे भाई भी थे, जो आये दिन ताश खेलने के सिलसिले मे दूसरे शहर से आ जाया करते थे। जब वो दोनों रिश्तेदार के घर पहुंचे, तो भाई साहब ने उनको प्रणाम किया पर ममेरे छोटे भाई यूँ ही बैठे रहे।
लौटते वक्त भाई साहब ने जब उनकी इस बेअदबी के बारे में पूछा, तो ममेरे भाई ने जवाब दिया कि आपके इस रिश्तेदार के साथ मैं कई बार ताश खेल चुका हूँ और इस दौरान कई बार ,बात तू तू मैं मैं से लेकर गली गलौज तक जाकर लौटी है और थोड़ी देर बाद उनके साथ ताश के अड्डे पर फिर बैठना ही है।
भाईसाहब, इस तर्क के आगे निरुत्तर थे।
हमारे गांव में जुए का चलन कब शुरू हुआ, ये एक अलग शोध का विषय है।
पर जब भी वहां जाने का मौका मिला एक न एक नया किस्सा सुनने को मिल ही जाता है