जी, वो पिता है
सूरज सा तपता है..जी पिता है
सूरज सा तपता है
चंदा सा जगता है
बच्चों की खातिर
हर पल मरता है ।।
मौन अभिव्यक्ति
आंखें पढ़ लेती है
फिसले जो रेत तो
मुट्ठी दब जाती है।।
झर जाएं पत्ते मगर
तना खड़ा रहता है
आएगा फिर सावन
सोच अड़ा रहता है।।
दिन में सफर है
रात में स्वप्न हैं
सुखी घर के लिए
हर पल जतन हैं।।
वेदना उलाहने ताने
मोरपंख सजे तराने
मकान,दुकान दफ्तर
सिर झुकाता अक्सर।।
क्या, क्यों, किसलिए
प्रश्नचिह्न परिभाषा है
इस पिता की देखो
अंतस अभिलाषा है।।
क्यों नहीं किया, क्या
किया हमारे लिए..?
वो चुपचाप सुनता है
स्वयं को ही छलता है।।
अशक्त, अव्यक्त, असमर्थ
निरुत्तर, निस्तेज,ये अर्थ
समिधा जीवन यज्ञ की
समदृश पितृ सब व्यर्थ।।
उड़ान, मचान, ओ लाठी
ऐनक, ये हाथ में बैसाखी
मंद-मंद मुस्काती चाल
मुखिया सीने में भूचाल।
पंख कटे पांखी….ओ..दीये की बाती..
सूर्यकांत द्विवेदी