जी” का काव्य में प्रयोग
‘
तुम आवाज दे
बुलाते
सूनो जी
मैं जबाब देती जी
कहती बोलो जी
कितना प्रिय लगता
जी कहना
हाँ जी में जी मिलाना
फिर एक मौन
मैं कहती कहो जी
तुम चुप
मैं आती जी
पास तुम्हारे
सटके बैठ जाती जी
शुरू करती कहकर सुनो जी
दिनभर की
तुम अपनी भूल जाते
मेरी ही सुनते जी
जी सम्बोधन में
आत्मीय का भाव छलकता
वही तो बाँधता है तुमको
तभी तो तुम
पुकारते हो मुझे
सुनती हो जी
मैं भी बन तुम्हारी छाया
चली आती हूँ जी
रेशम की डोर सी खींची
जी जी जी जी कहती हूँ
लिपट जाती हूँ जी
तुम्हारे आगोश में
जी कहकर
जी शब्द ही तो मुझे
बनाए मुझे तुम्हारा
जी शब्द की खाद पाकर
ही तो यह
प्रेम वृक्ष पनपा
दीर्घकाय हुआ है
जी आज भी तुम
मेरी आत्मा हो जी
आत्मा और शरीर जैसा
जैसा है सम्बन्ध
क्योंकि जी
एक अभिन्न रिश्ता है
जी आपके साथ
मेरा जी
डॉ मधु त्रिवेदी