*”जीवात्मा”*
जीवात्मा
भृकुटी में चमकता ये अजीब सितारा।
जीवन का गजब खेल अनोखा ये तारा।
यह देह तो आत्मा का काला चोला है।
कोई न गोरा न कोई काला ये तो अलबेला है।
क्या तेरा क्या मेरा ये अजब गजब सा मेला है।
साथ न तेरे जायेगा जाना तो हमें अकेला है।
ये संसार तो मुसाफिर खाना बस चलते ही जाना है।
एक न एक दिन ये प्राण पखेरू उड़ जाना ही है।
यह सृष्टि रंगमंच नाटक आत्मा रूपी कलाकर है।
नित नए शरीर रूपी वेशभूषा बदल अपनी अलग भूमिका निभाता जाता है।
असली लोक तो ब्रम्हलोक इहलोक है।
यहाँ तो आत्मा रूपी मुसाफिर को उड़ जाना है।
ये शरीर हड्डी अस्थि पंजर असली ठिकाना मंजिल है।
विधि का विधान ऐसी घड़ी बनाई नियत समय पर ही चले जाना है।
ये जीवात्मा पुराने कपड़े उतारकर चोला
नए कपड़े की तरह दूसरे जीवात्मा में चले जाना है।
शशिकला व्यास