जीवन
मुकम्मल होने की चाहत ही नही,
अधूरेपन में एक अजब सा मज़ा है।
बेशक बहारे; सुकून- ओ-चैन देती है,
गर खिज़ाँ नही हो तो, बहारों में जीना एक सजा है ।।
तजुर्बा साकार करती है, ठोकरें इन्सान की,
राह में गर पत्थर नही हो,
फिर चलने में कहां मज़ा है ।।
ज़र्फ जरूरी है बेशक़ जीने के लिये,लेकिन बचपना भी लाज़िमी है,
गर न हो दास्ताँ हादसोँ की जिन्दगी मे,फिर इस से तो अच्छी कज़ां है ।।