जीवन है संग्राम
बन्धु रे जीवन है संग्राम,
निज अस्तित्व बचाने को,
लड़ना पड़ता है आठौ याम।
कभी समाज से कभी सिद्धांत से,
कभी अपने मन की उद्भ्रान्ति से।
बीत जाता है जीवन लड़ते लड़ते,
मिलता नहीं मुकाम।
कुछ स्वस्ति वाचक समाज में,
पा जाते हैं शीर्ष ठौर ।
लेकर सहारा जाति पाँति का,
बन जाते हैं सिर मौर।
वे ही संचालन करते हैं समाज का,
पाते हैं धन और नाम।
सोच है उनकी होंगे बदनाम-
पर नाम तो होगा।
नही हो भला देश समाज का,
उनका तो होगा ।
अनाम मरने से अच्छा है,
मरना होकर बदनाम।
ऐसी मानसिकता से समाज,
कैसे उन्नति पायेगा।
अवनत समाज के होने से,
क्या देश शीर्ष पर जाएगा?
संसद में होती है टाँग खिंचाई,
देश की धूमिल होती है छवि अभिराम।
जयन्ती प्रसाद शर्मा