जीवन मेला
जीवन मेला “जहाँ” में इसी तरह चलता ही रहेगा ,
मेले का यह कारोबार सजता और उजड़ता रहेगा I
बिछुड़कर भी उनको अपना असली मुकाम मिल गया,
मिलकर भी इस मेले में अपनी राह से वो भटक गया,
खुद को ठगाकर मालिक की आँखों का नूर बन गया ,
ठगकर दुनिया को वो निर्धन से महानिर्धन बन गया I
जीवन मेला “जहाँ” में इसी तरह चलता ही रहेगा ,
“गरूर का व्यापार” बनता और बिगड़ता ही रहेगा I
फूलों के मध्य रहकर कांटो का बेचते है वह सामान ,
गुलाब के नन्हे पौधों को रौंदकर बढ़ाते अपनी शान ,
जिनकी खुसबू से इस खूबसूरत फुलवारी की पहचान ,
उन्हीं की डालियों को तोड़कर चला रहे अपनी दुकान I
जीवन मेला “जहाँ” में इसी तरह चलता ही रहेगा ,
इस जग में प्रेम-प्यार का फूल खिलता ही रहेगा I
“संभल जा” , फुलवारी के माली तू किस ओर जा रहा,
जहाँ से वापस आना मुश्किल उस ओर क्यों तू जा रहा?
फूलों में नफरत का पानी डालकर किस ओर जा रहा?
नन्हें पौधें आशा से निहार रहे तुझको, तू कहाँ जा रहा?
जीवन मेला इस “जहाँ” में इसी तरह चलता ही रहेगा ,
प्रेम के पुजारी को “मालिक” का भरोसा मिलता रहेगा I
“राज” एक दिन तेरी प्यारी कलम की लेखनी रूक जाएगी,
तेरे दिल की धड़कन की आवाज भी “जहाँ” में थम जाएगी,
पर जाते-२ एक सुनहरी इबारत कागज में लिखकर जाएगी,
इंसानियत को छोड़ा तो फुलवारी की खुसबू ख़त्म हो जाएगी I
जीवन मेला इस “जहाँ” में इसी तरह चलता ही रहेगा ,
आने – जाने का क्रम यूहीं इस जग में चलता रहेगा I
*****
देशराज “राज”