जीवन में वैचारिक सोंच की द्रष्टताः
सोंच समझ के आधार पर हम किसी से अच्छा बुरा बर्ताव करते।
बाद सोंचते कि हमें यह आवश्यक है कि नकारात्मक भाव को सकारात्मक विधा में कह कर नकारात्मक भाव कहें।
सम्भवता अमूमन देखा गया है कि परिवारिक-बच्चे या अन्य सदस्य। जिन्हें तुम्हें ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा या अन्य।वह तुम्हारी सोंच विधा के नहीं हैं।
अपनी द्रष्टि विधा से तुलना मत करो।
तभी दुख कष्ट का कारण-अफसोस समाप्तहोगा
यही तुम्हारे ज्ञान की अक्षमता है।
तुम किसी से बड़े हो या छोटे हो या बराबरके हो
सब में पारस्परिक वैचारिक अंतर है।
इस विधा को समझो। इज्जत मर्यादा को पितासे
दूर रखें। यही परेशानी और दिक्कतका कारणहै
श्रेष्ठ महान लोग यह समझकर संतुलित हो जाते तथा किसी परेशानी को सामान्यता पार कर लेते।यही सामान्य लोग इज्जत प्रतिष्ठा और बलके
आधार पर दिक्कत परेशानी करके देखते हैं
जीवन की मौलिकता गिरी तभी यह समझो।यह
मानो कि संचालित जीवनविधामेंग्रहनक्षत्रहोताहै
बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी इस विभागमेंरहतेहैं
समय जगह स्थान पर ग्रह नक्षत्रों का प्रबन्धन विधा में उपस्थिति परिणाम नकारात्मक या सकारात्मक भाव अवश्य दिखाई देते है वह एक निश्चित विधा है।आज तक कोई संस्कृति को हटा नहीं पाया।जगह समय स्थान तो पिता बदलते हैं तथा विश्वास की दृष्टि से परेशानी कष्ट को गुरु देवी देवता संचालक में डालकर संतोष करते हैं समय बदलाव के कारण सोच में राहत मिल जाती
समय अंतराल पर स्थित भर जाती है। लाभ हानि कुछ होता नहीं संस्कृत करती ग्रह नक्षत्रों के हिसाब से निश्चित होती है।जो चीज माता का व्यापक आधार है जिसे प्रमाणिकता संस्कृति विधा में अपनी अपनाई जाती रही है।ज्योतिष का ज्ञान न होने से संपूर्ण कार्य काफी लोग नहीं कर पाते तथा व्यवहारिक विधा देखकर बताते विशेष द्वारा आप तन-मन का योगकरें सभी.भावोंको संतुलन मिलेगा