जीवन में कांटे
मैं
चला जा रहा था
राह पर
ठोकर लगी
चोट गहरी थी
अंगूठे में
मैने सड़क पर पड़े
पत्थर की उलाहना की
और आगे बढ़ गया
एक कांटें ने चुभ कर
फिर मेरे पैर को
चोट पहुँचाई
असहनीय पीड़ा को
सहते हुए भी
मैं
आगे बढता रहा
उस ठोकर लगाने वाले
पत्थर को ना हटा कर
और
उस पैर में चुभने वाले
कांटे को ना हटा कर
मेरे पीछे और भी
आ रहे है साथी
मैंने जो पीड़ा भोगी है
वह दूसरे नही भोगें
यह मैंने नही सोचा
जबकि मुझे ऐसा सोचना था
अगर ऐसा सोचता तो
मैं राह की दिक्कतों को
दूर करता जाता
जिससे सुगम होते रास्ते
मेरे अजनबी
मेरे अनजान
दोस्तों के वास्ते
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल