जीवन -मृत्यु के मध्य के वह पल
जीवन -मृत्यु के मध्य का वह फासला
जो जन्म से शुरु होकर,एक पल से शतआयु तक
कुछ भी हो सकता है,उसके प्रारभ्बध्द के अनुसार
इसे,न माने हम जीत हार का खेल
यह तो चलता ही रहा है,हर घडी हर पल
और आज भी,अब भी और कलभी
यों ही,अनवरत चलता रहेगा,
तब तक जारी रहेगा,जब तक इस धरा पर जन्मा
जीव धारी,अपनी जीवन यात्रा से
महा प्रयाण नहीं कर लेता,यानि कि मृत्यु का वरण नही कर लेता।
जन्म लिया है तो मृत्यु भी आनी ही है,
क्योंकि यह तो पुरक हैं एक दुसरे के,
बिना एक के दुसरे कि कल्पना भी नही
तो फिर क्यों पडे रहते हैं हम इस फेर में
क्यों न जीयें इन पलों को,पुरे मनोयोग से
और जीने दें,औरों को भी,पुरे उल्लास से
तब क्या खोया क्या पाया,यह तो एक तृष्णा है
और इसी मे डूब जाना मृग मरीचिका है
हाँ,हम मृत्युन्जय नही हैं,इसे क्यों नही स्वीकारते
वह तो पीछा कर रही है,माँ के गर्भ से ,
कितने हैं जिन्हें नसीब नही,देखने को खुला गगन
जो मां के गर्भ मे ही तोड देते है दम,
जो लेना चाहते थे इस धरा पर जन्म,
कुछ वह भी हैं,जो जन्म लेकर तो आये,
पर कई विकृतियों को साथ लाये,
हैं वह भी,जो जन्म से ही रुला देते हैं
होते है स्वयं कष्ट में आप ही,और साथ में मां बाप भी,नही दिया जा सकता जिन्हे, लम्बी उम्र का बरदान,और नाही कह पाते हैं मुक्ति का दान,
तो जरा करें गौर,अपने जीवन पर,
यह किसी विकार से मुक्त मिला है हमें
तो यह हमारी खुशनसीबी है तक सीमित नही,
अपितु एक जिम्मेदारी है हमारी,
हम स्वयं ही न जीयें,औरों के जीने में भी सहायक बने,निराश्रितों के लिये अनुकूल माहौल दें,
जरुरत मन्दो को अपनायें,
और तब यदि आये भी मृत्यु तो,
आखें उन सबकी नम हों,जिनके हित में ,
एक पल भी बिना लोभ का जीये हो हम,
तभीयह जीवन सार्थक है,और ऐसी मृत्युशास्वत है।