जीवन प्रवाह
अक्र बक्र दो नदी किनारे
बीच बहे जीवन की धारा |
गंगा सागर में मिलने तक
सुख-दुःख ये ही सहें हमारा |
दो कंधों से सटा रपटता
धरा धरातल पर बहता |
कभी प्रपात बनता गिरता
कभी बांध सी पराधीनता |
कभी ऊर्जा उसे उठाकर
गगन चूमने प्रेरित करता |
कभी लेप चन्दन का बनकर
तनमन में शीतलता भरता |
हर जीवन इन से ही गुजरे
पानी की धारा सा बहकर
कपिल मुनि के चरणों जाता
दुःख-सुखों के कंधों चढ़ कर |
सुख दुःख हैं दो नदी किनारे
पानी सा बहता यह जीवन ।
गिरता, ठोकर खा कर उठता
करता पूर्ण यों सभी चरण ।