जीवन नैया
जीवन नैया
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लेकर अपनी जीवन नैया
चल पड़े क्षितिज के उस पार,
बीत रही है जीवन की संध्या
तेरे इस संसृति में मेरी,
चल दिया दिवाकर संग मेरे
राह दिखाने को इस पल में,
पर…..
उसने भी छोड़ा साथ मेरा
बीच राह में चलते चलते,
लेकर अपनी जीवन नैया
चल पड़े क्षितिज के उस पार |
नहीं सूझती राह मुझे अब
भटक रहा हूँ इस मझधार में -मैं,
आगे है घोर गहन अँधेरा
ज्योति भी बुझने वाली है,
नैया भी हिचकोले खाने लगी
अब देर करो ना प्रभु तुम -मेरे,
अब आ भी जाओ पास –मेरे
करो दूर संताप मन का मेरे -तुम
और दूर करो मन के अँधियारे को,
पार करा दो नैया मेरी –जो,
डूब रही है इस भवसागर में,
लेकर अपनी जीवन नैया
चल पड़े क्षितिज के उस पार ||
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब
स्वरचित मौलिक रचना
19-02-2024