जीवन जीने की जंग-गांव शहर के संग!
अदृश्य शत्रु की आहट बडी है,यह संकट की विकट घड़ी है!
घर पर रहने का आग्रह है,इसमें नहीं कोई दुराग्रह है!
ठहरे हुए भी हैं लोग घरों पर, कहे अनुसार संयमित होकर!
हाँ भूख-प्यास का नही अभाव है,मिलता रहेगा यह भाव है!
खरीदने की भी छमता पुरी है,रुपये-पैसों की नहीं कमी है!
मध्य वर्गीय में यह विश्वास भरा है,यही उसके संयम की पूँजी है!!
किन्तु वह क्या करें, जो हर दिन काम को जाते हैं!
हर रोज कमा कर लाते हैं,हर रोज पका कर खाते हैं!
रहने का भी नहीं आश्रय है अपना ,
सर छिपाने को जहाँ मिल जाए,बना दिया वहीं ठिकाना!
ऐसे में जब देश बंदी का एलान हुआ,
उसने अपने को ठगा हुआ महसूस किया!
एक-दो दिन तक वह सोचता रहा,
क्या करना है,न समाधान मिला!
तब तक भूख की आहट हुई,
समस्या थी यह उसके लिए बड़ी!
रुपया-पैसा नहीं साथ में,
ना ही काम-धाम हाथ में!
क्या करें, कहाँ जाएँ,
कहाँ मिलेगा,कहाँ से लाएँ!
यह प्रश्न थे सामने खड़े,
बीमारी से तो तब मरेंगें,
जब हम जीवित बचेंगे !
यह भूख ही हमें मार डालेगी,
भूखे बच्चो की आह जला डालेगी !
अस्तित्व बचाने को चल पड़े,
अपने घरों को निकल पड़े!
राह भी नहीं थी आसान बहुत,
भय,भूख व और धूप उनकी राह रहे थे तक ,
उठक बैठक से लेकर डंडों की फटकार तक!
वह सब पाया,जिसकी कभी नहीं चाहत थी,
चले जा रहे थे वह सब,पग-पग,
घर पहुँचना था एक मात्र लक्ष्य!
धन कमाने को शहर आए थे,
नही रहा जब वही शेष!
तो शहर हो गया पराया सा,
ना काम रहा-ना दाम रहा,
ना खाने-पीने का इंतजाम हुआ!
तो रह कर हम यहाँ करेंगे भी क्या,
चलते हैं अपने घर पर,जहाँ मिलेगी अपने छत की छाँव!
जिन्दगी बाकी रही तो,रुखा-सूखा खा लेंगे,
जाएंगे अपनों के पास,कुछ तो अपना पन पायेंगें!
शहरी से अपना रिश्ता कैसा,नौकर और मालिक जैसा!
गांव-घर में होती है अपने पन की प्रीति,
भूखे को भोजन मिले, यह गांव,गांव की रीति!
गांव-शहर की शैली निराली,
एक ओर भौतिक सुख साधन की है भूख,
एक ओर,भर पेट भोजन तक सीमित!!