जीवन के दो पहलू
बहार आई हर उपवन में, बसतं ऋतु के आने पर,
तितली झूमी हर फूलों पर, पक्षी नाचे गाने पर l
ऐसा पतझड़ सूखा आया, वे सारे डंडल बन गये,
दिवाली सजी थी दीप शिखा से, घर घर खुशियाँ छाई हुई l
वर्षा संग कुछ तेज हवा से, बुझ बाती सब गिर गये,
माली खुश था देख बाग को, आमों की टहनी लदी हुई,
चली जेठ की ऐसी आंधी, सारे गुच्छे झड़ गये l
शहरीकरण से पैसा पाकर, कृषक फूले सौ सौ बार,
पैसा सपड़ा चौपट धंदा, अब रोये, बिन साधन बन गये l
गाड़ी चलाई कर्जे लेके, बना सहारा रोजी रोटी का,
दुर्घटना में गाड़ी टूटी, हत्या जुर्म में कैदी बन गये l
क्या क्या संजोय “संतोषी” अर्मा, पल पल में बदलते रहे,
दिन ख़ुशी का भर के आया, रात में सब ढल गये l
शादी रची थी गह्स्थ बसाने, खुशियाँ लुटाई जी भर भर के,
भागी पत्नी तलाकी बन के, हम धन से निर्धन बन गये l
जोड़ के माया झूठी साथी, बना घरौंदा रहने लगे,
ढह गया वो भी बरसाती बाढ में, हम रोते ठगे से रह गये,
ऐसा पतझड़ सूखा आया, वे सारे डंडल बन गये ll