जीवन के अंतिम दिनों में गौतम बुद्ध
सत्य और धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझाने के लिये समाजिक अंधविश्वासों, मान्यताओं, रुढ़ियों, परम्पराओं का अनवरत विरोध करने वाले महात्मा बुद्ध अपने सुधारवादी, प्रगतिशील, कल्याणकारी दृष्टिकोण के कारण जितनी प्रसिद्ध और जन समर्थन प्राप्त करते गये, उनके शत्रुओं की संख्या भी निरंतर बढ़ती गयी। जिन लोगों की रोजी-रोटी या आर्थिक आय का स्त्रोत धर्म के नाम पर ठगी करना था, ऐसे वर्ग को गौतम बुद्ध की वे बातें रास ही कैसे आज सकती थीं, जिनके माध्यम से उनके धंधे पर सीधे प्रहार हो।
बुद्ध जब ‘जैतवन’ नामक स्थान पर थे तो उनके कुछ शत्रुओं ने ‘सुन्दरी’ नामक बौद्ध भिक्षुणी को लालच में फंसाकर बुद्ध के खिलाफ एक षड्यंत्र रचा। बौद्ध भिक्षुणी से जगह-जगह प्रचार कराया गया कि उसके बुद्ध से अनैतक देह-सम्बन्ध हैं। जब यह समाचार बिम्बसार के महाराजा ने सुना तो उन्होंने अफवाह फैलाने वाले उन सभी को गिरतार कराया जो इस षड्यंत्र में शामिल थे। ये लोग चूंकि शराब के नशे में धुत्त थे, अतः थोड़ा-सा धमकाने पर ही अपने अपराध को कुबूल कर बैठे। अपनी इस करतूत पर उन्हें इतनी-आत्म ग्लानि हुई कि वे बुद्ध की शरण में गये और उनसे क्षमा मांगने लगे। निर्विकार चित्त और उदार प्रकृति के धनी महात्मा बुद्ध ने उन्हें क्षमा ही नहीं किया, संघ में शामिल होने की भी अनुमति दे दी।
लगभग एक हजार व्यक्तियों को क्रूर तरीके से मारकर उनकी अंगुलियां को काटकर गले में माला बनाकर पहनने वाले कुख्यात डाकू अंगुलिमाल जब बुद्ध को मारने के लिये उद्यत हुआ तो उन्होंने निर्भीक होकर उसे, उसके अपराध का एहसास कराया। अंगुलिमाल को अपने कुकृत्य पर पश्चाताप होने लगा। बुद्ध ने उसे सच्चे धर्म और कर्तव्य की शिक्षा दी और बुद्ध ने संघ में सम्मिलित कर लिया। आगे चलकर अंगुलिमाल बौद्ध धर्म का एक श्रेष्ठ प्रचारक बन गया।
वृद्ध-अशक्त गौतम बुद्ध जब मृत्यु-शैया पर थे तभी एक सुभद्र नाम का परिव्राजक अपनी धर्म संबंन्धी शंकाओं को लेकर उनके पास समाधान के लिये आया। अपनी अर्धचैतन्य अवस्था में ही गौतम बुद्ध ने उसकी शंकाओं का समाधान किया और उसे संघ में स्थान दिया। सुभद्र ही गौतम बुद्ध का अन्तिम शिष्य बना।
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