जीवन की शवयात्रा
कुछ कदम ओर,
कुछ दूर ओर,
हार नहीं मानी,
थका नहीं,
हररोज़ बीच भंवर
जाना नहीं स्तर.
पहले से बेहतर,
चाह में अक्सर,
भोर में उठकर,
तपती दुपहरी,
संध्या न देखकर,
चने चबाकर,
पानी पास न पाकर,
फिर भोर हो गई.
चला तो बहुत,
पदचाप न पाकर,
रिस्ते घावों को छुपाकर,
अंत घड़ी को देखकर.
चेहरे पर मुस्कान लाकर,
हमेशा के लिये विदाई लेकर,
जो कभी मेरे आसपास न थे,
आज रो रहे हैं,
हितैषी बनकर,
सार यही है,
आभार उनका,
पढ़कर जीवन निर्भार हुआ उनका.
शैतान तो शैतान है.
काम करे अपना.
जिक्र नहीं उनका.
जीते जी जीवन मुरदा है जिसका.
वरन् डॉ महेन्द्र सिंह हंस
जीवन की शवयात्रा
कैसे निकलती.