जीवन का पतझड़
रेगिस्तान सी विरान हो गई जिन्दगी
ना हा भाव ना ही हाव है
ना कोई शोक है बस ऱोक है
बोझ तले दब गई है जिन्दगी
रूक गई है थम सी गई है जिन्दगी
मुश्किलें तरूओं की पतियों सी
झड़ गई है जिन्दगी
पतझड़ सी बन गई जिन्दगी
मुश्किलें ए चट्टान सी बड़ी
झन्ड ऐ फण्डा बण् गई है जिन्दगी
ज्येष्ठ की गर्म दोपहर सी
तपस से तप गई है जिन्दगी
हाड़ ए उष्म चिन्गारियों से
पूर्णतया जल गई जिन्दगी
राख-खाक बन गई जिन्दगी
सावन की बरसती बूँदों से
लगता है गल गई है जिन्दगी
या फिर बाढ के आगोश में
फस कर डूब गई है जिन्दगी
या गोतों से तर गई है जिन्दंगी
पौह माघ की असहनीय ठन्ड से
ड़सुनसान तल पर कहीं न कहीं
लुकती छिपती जम गई जिन्दगी
आर्द्र नम गीली रुत की
जकडऩ में जड़ हो गई जिन्दगी
गमसीन बोझिल हो गई जिन्दगी
सुखविंद्र सिंह मनसीरत