जीवन कभी गति सा, कभी थमा सा
जीवन
कभी जलप्रपात के शोर सा,
तो कभी एकांतप्रिय
शांत झील सा…
जीवन
कभी कलकल करता
बहती नदी सा,
कभी मन ही मन जूझता
ज्यों वारि के बुलबुलों सा…
जीवन
कभी गगन छूने की चाहत लिए
जागृत इच्छाओं के
उफ़नते आब सा,
कभी क्षितिज की चाहत में
अतृप्त अभिलाषाओं की मृगतृष्णा सा…
जीवन
कभी थिरकता, मचलता
उमंग, जोश, जुनून से भरा
अल्हड़ युवती सा,
तो कभी
नीरस, निढाल, सुप्त अवस्था स्थित
ज्यों ढलती उम्र के ठहराव सा…
जीवन
कभी उठती-गिरती तरंगों सा,
कभी बोझिल, मायूस पड़ा ठहरे जल सा,
कभी उजली राह सा,
कभी घने अँधेरे सा…
जीवन
एक नव विहान सा
निराशा को आशा में बदलता
आशा को विश्वास में बदलता
जीवंतता दिखाता
ज्यों नवजीवन के आगाज़ सा,
तो कभी तट को छोड़ता हुआ
सूखी रेत सदृश
मुट्ठी से फिसलता हुआ
मानो जीवन के अंत सा…
जीवन
एक अभिव्यक्ति सा
जो पढ़ने में सरल
समझने में दुष्कर सा,
लगता मानो
जीवन कभी गति सा, कभी थमा सा।
जीवन कभी गति सा, कभी थमा सा।।
रचयिता–
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’