जीतनराम: एक दुःखद स्मृति
“पहचाना साहब!” सामान उठाते हुए नौजवान कुली ने कहा। वह अचानक सुबह की ताज़ी हवा के तेज झोंके की तरह सामने आ खड़ा हुआ था। लम्बी-घनी दाढ़ी-मूँछ और चेहरे को आधा छिपाते सिर के बिखरे लम्बे बाल, जो गालों तक को ढक रहे थे। उनके बीच में उसका चेहरा पहचाना मुश्किल ही नहीं, बिल्कुल नामुमकिन था। फिर भी मैंने अपने चेहरे पर चश्मे को ठीक से व्यवस्थित कर, उसके चेहरेनुमा शख़्स को याद करने की भरपूर कोशिश की मगर अपने इस प्रयास में असफल ही रहा।
“नहीं पहचान पाओगे साहब!” फिर खुद ही अपना परिचय देते हुए वह बोला, “रघुवर राम … जीतन राम का बेटा।”
“अरे रघुवर तुम हो! तुम तो बिल्कुल भी नही पहचाने जा रहे भाई! ये क्या हुलिया बना रखा है? क्या साधु बनने का इरादा है?” मैंने उसके सर, दाढ़ी-मूछ के लम्बे बालों की तरफ इशारा करते हुए हैरानी से कहा, “और जीतन भाई कैसे हैं?”
“पापा को गुज़रे तो एक साल हो गया।” रघुवर ने एक झटके में कह दिया और सामान को कंधे और हाथों में व्यवस्थित करने लगा।
“ओह!” मैंने अफ़्सोस ज़ाहिर किया। एक बैग मैंने उठा लिया, “कोई बात नहीं, इसे मैं उठा लेता हूँ।”
“कोई नहीं मैं उठा लूंगा साहब! अब तो कुलीगिरी ही मेरा नसीब है।” रघुवर ने बड़ी ही संजीदगी से कहा। मैं हैरान था हमेशा मोबाइल पर वीडियो गेम खेलने वाला और अपनी छोटी बहन से लड़ने वाला रघुवर राम आज इतना बड़ा और परिपक्कव हो गया है।
“अम्मा और तुम्हारी छोटी बहन कहाँ हैं?” मैंने चलते-चलते ही पूछा।
“अम्मा स्टेशन के बाहर ही भुट्टे बेच रही है।” गेट से निकलते हुए रघुवर राम बोला, “क्या करें साहब, एक काम से गुज़ारा नहीं होता? इसी साल के शुरू में बीना की शादी भी कर दी थी। सर पर काफी क़र्ज़ा हो रखा है। उसी को उतारने की कोशिश में दोनों माँ-बेटे दिन-रात मेहनत-मजदूरी कर रहे हैं। वो देखो … वो रही अम्मा।” रिक्शा स्टैंड के पास सामान उतारने से पहले ही रघुवर राम बोला।
“नमस्ते!” मेरी तरफ देखकर जीतन की घरवाली माया ने दोनों हाथ जोड़े। वह काफी दुबली-पतली हो गई थी। सहासा! निराला की पंक्तियाँ मुझे याद आ गई—’पेट और पीठ मिलकर हुए हैं एक’। देखकर ही अंदाजा लग रहा था कि किन विषम आर्थिक परिस्थितियों में संघर्ष करने को मज़बूर हैं दोनों माँ-बेटे।
“नमस्ते!” प्रतिउत्तर में मैंने भी कहा ही था कि मेरे पीछे दो-तीन रिक्शेवाले आ खड़े हुए।
“कहाँ चलेंगे साहब?” लगभग सभी रिक्शेवालों के मुंह में एक ही संवाद था।
“नहीं, नहीं। आप लोग जाइये। हमारे मित्र अपनी गाड़ी लेकर आते ही होंगे।” मैंने रिक्शेवालों को टालते हुए कहा।
“तीन चाय देना।” बगल से गुज़रते हुए चाय वाले को देखकर रघुवर ने आवाज़ दी। चायवाले को कहने भर की देर थी कि उसने फ़ौरन प्लास्टिक के तीन कपों में चाय उडेलनी शुरू कर दी।
“इक्कीस रूपये। एक रूपये खुला देना साहब, सुबह-सुबह का वक्त है।” तीनों को चाय पकड़ने के उपरांत चायवाला बोला।
“अबे हम क्या भागे जा रहे है? ले लियो थोड़ी देर में।” रघुवरराम चाय वाले पर बरसते हुए बोला।
“कोई नहीं, मैं दे देता हूँ।” और पर्स में से 50 रूपये चायवाले को थमा दिए। साथ ही एक रुपया खुला भी दिया। उसने तीस रुपए लौटा दिये। चायवाला आवाज़ लगाते हुए आगे बढ़ गया, “चायवाला, चाय। कड़क-कड़क, इलायचीदार चाय।” हम चाय की चुस्कियां लेने लगे।
“बड़ा अफ़्सोस हुआ बहन जी, जीतन भाई के बारे में सुनके।” चाय की दो-तीन चुस्कियां लेने के उपरान्त मैंने कहा, “पर होनी को कौन टाल सकता है!”
“वो लक्ष्मी के सदमे से उभर नहीं पाये। उसी के ग़म में चल बसे।” लगभग रोते हुए जीतन की घरवाली बोली।
“लेकिन आप अचानक पटना में!” रघुवर ने गरम चाय को फूंकते हुए कहा।
“हाँ, यहाँ एक स्थानीय कवि सम्मलेन में हिस्सा लेने आया हूँ। तीन दिन का दौरा है। आने-जाने की व्यवस्था यहाँ के स्थानीय साहित्यकारों ने ही कर रखी है।” मैंने अपने आने का कारण स्पष्ट किया, “और अब प्रकाशक भी हो गया हूँ। ये जो सारा सामान देख रहे हो, इसमें किताबें ही भरी पड़ी हैं। मैंने स्टेशन पर उतरने से पहले ही, सतेन्द्र जी को अपने आने की सूचना दे दी है। वो अपनी गाड़ी लेकर आता ही होगा।” ज़रा दुबारा फ़ोन कर दूँ और कहकर मैंने मोबाइल से सतेन्द्र का नंबर पुनः डायल किया।
“कहाँ हो गुरुदेव, श्री-श्री एक हज़ार आठ वीरू भण्डारी जी?” सतेंद्र ने झट से फ़ोन उठा लिया और उल्टा मुझसे ही प्रश्न किया।
“अरे यहीं हूँ सतेंद्र भाई, स्टेशन के बाहर रिक्शा स्टैंड के पास।” मैंने मोबाइल पर अपने खड़े होने के स्थान की पुष्टि की। वह न जाने कबसे स्टेशन के भीतर मुसाफिरों की भीड़ में मुझे तलाश रहा था। मैंने मोबाइल जेब के सुपुर्द करते हुये कहा, “शैतान को फ़ोन किया और वो स्टेशन में ही घूम रहा है!”
सतेन्द्र सहित अन्य कवियों की सहयोग राशि से “पुस्तक प्रकाशन” हेतु राशि मुझे ऑनलाइन ही मोबाइल से प्राप्त हो गई थी। इसके अलावा दो कवियों से पाँच हज़ार रूपये बतौर एडवान्स, दिल्ली में ही मिले थे। वह मेरे कोट के भीतर की जेब में पैकेट के अंदर ज्यों-के-त्यों रखे थे। मैंने वो पैकेट माया के हाथ में रख दिया, ये कहकर, “ये मेरी तरफ से तुच्छ भेंट।” तब तक सतेंद्र भी मुझे ढूंढता हुआ आखिरकार मेरे पास पहुँच ही गया। रघुवर राम ने कार में मेरा सामान एडजेस्ट किया। सब बैगों में कुल जमा किताब की ग्याहरा सौ प्रतियां सजिल्द थी। जो बमुश्किल बैगों में समां पाई थी। चलते समय कविता के किताब की एक प्रति मैंने रघुवर राम को भी दे दी थी। अश्रुपूर्ण नेत्रों से माया और रघुवर हाथ जोड़े ‘कृतार्थ’ भाव से मुझे देख रहे थे। इस बीच सतेंद्र ने कार स्टार्ट कर दी। हाथ हिलाते हुए उन भावुकता के क्षणों में मैंने वहां से विदा ली।
सतेंद्र के यहाँ कार्यक्रम पहले से तय था। अतः रहने, खाने-पीने की उचित व्यवस्था और बिहार के स्थानीय कवियों के साथ जमके हंसी-ठठा हुआ। कवि सम्मलेन में भी खूब रस जमा। सुनने वालों ने अच्छी कविताओं का आनंद लिया। एक अच्छी बात यह रही कि जैसा कि मंचों पर अब यह कॉमन हो गया है—चुटकुलेबाज़ी और फ़ूहड़ हास्य-व्यंग। वह चीज़ यहाँ नदारद थी। इसी शर्त पर मैं आने को तैयार हुआ था कि सभी कवि अपना श्रेष्ठ काव्य प्रस्तुत करेंगे और आयोजक तथा संचालक सतेंद्र जी ने इसका ख्याल रखा था। मंच पर जब पुकारा गया अब महावीर उत्तरांचली जी अपना काव्यपाठ करेंगे तो मैंने गुनगुनाते हुए दोहों से आरम्भ किया:—
होंठों पर है रागनी, मन गाये मल्हार / बरसे यूँ बरसों बरस, मधुरिम मधुर फुहार // सबका खेवनहार है, एक वही मल्लाह / हिंदी में भगवान है, अरबी में अल्लाह // मिश्र-रोम तलक मिट गए, बाकी हिंदुस्तान / हिन्दू-मुस्लिम एकता, यही हिन्द की जान।
लगभग डेढ़-दो दर्ज़न दोहे सुनाने के बाद जब लोग मन्त्र-मुग्ध हो गए तो सतेंद्र जी ने ग़ज़लों की भी फरमाइश की और मैंने बड़ी तन्मयता से ग़ज़लें भी कहीं। ग़ज़ल सुनाने से पहले लोगों को बताया कि देशभर में सन 2011 में जो अन्ना हज़ारे आन्दोलन चला उस दौरान ये कुछ रचनाएँ कही थी:—
जो व्यवस्था भ्रष्ट हो, फ़ौरन बदलनी चाहिए / लोकशाही की नई सूरत निकलनी चाहिए / मुफलिसों के हाल पर आँसू बहाना व्यर्थ है; क्रोध की ज्वाला से अब सत्ता बदलनी चाहिए / इंकलाबी दौर को तेज़ाब दो जज़्बात का; आग यह बदलाव की हर वक्त जलनी चाहिए / रोटियां ईमान की खाएं सभी अब दोस्तों; दाल भ्रष्टाचार की हरगिज न गलनी चाहिए / अम्न है नारा हमारा लाल हैं हम विश्व के; बात यह हर शख्स के मुहं से निकलनी चाहिए।
फिर दूसरी रचना पढ़ी:—
सीनाज़ोरी, रिश्वतखोरी, ये व्यवस्था कैसी है? होती है पग-पग पर चोरी, यह व्यवस्था कैसी है? सबकी ख़ातिर धान लगाए, खुद मगर न खा पाए; दाने को तरसे है होरी, ये व्यवस्था कैसी है?
आदि-आदि एक के बाद एक ग़ज़ल लोग सुनते चले गए। मेरे बाद भी अनेक शायरों, कवियों ने भी पढ़ा। सुनने वालों ने सबको खूब सराहा। देर रात तक यह कार्यक्रम चला।
अगले दिन स्टेशन पर सतेंद्र मुझे फिर अपनी कार से वापसी की ट्रैन मैं बैठा गया। समय इतना कम था और भीड़ इतनी अधिक थी कि चाहकर भी रघुवर और उसकी माँ माया से भेट न हो सकी। खैर मैं ए.सी. कोच में बैठा था इसलिए ज़ियादा तकलीफ़ नहीं हुई। सामान कुछ था नहीं, लेकिन सतेंद्र ने चलते वक्त बिहार की कुछ खास चीज़ें मेरे बैग में रख दी थी। ये कहकर कि “यहाँ की मशहूर देहाती आयटमें हैं, रस्ते में खा लीजियेगा। कुछ बच्चो के लिए भी ले जाइयेगा।” बैग में जो चीज़ें मौजूद थीं, उनमे — सत्तू, चूड़ा, खजूर (आटा और चीनी मिश्रित मिष्ठान), चौरठ (चावल का मीठा लड्डू) थे। बाकी बैग फोल्ड करके उसी बैग में समा गए थे। अपनी सीट पर बैठा तो यकायक ही जीतन भाई का हँसता हुआ। मेहनतकस चेहरा याद आ गया। फिर तो पुरानी यादों की कड़ियाँ जुड़ती चली गईं और जीतनराम यादों की पृष्टभूमि पर सजीव हो उठा। मानों साल-दो साल पुरानी घटनाएँ न होकर ये सब, कल ही की बात हो।
….
“प्रभु जी, तुम चन्दन हम पानी,” अधेड़ उम्र जीतन राम रोज़ की तरह जूता-सी रहा था। यह भजन उसकी वाणी अमृत की तरह जब-तब, वक्त-बेवक्त लोग सुनते रहते और भाव-विभोर हो उठते।
“जीतन भाई लगता है यह भजन संत रैदास ने खास तुम्हारे लिए ही लिखा था।” मैंने लकड़ी के बैंच पर बैठे-बैठे बातचीत बढाने की गरज से कहा। प्रत्युत्तर में जीतन मुस्कुराभर दिया।
“कैसा भी मरा-गिरा, फटा-पुराना जूता हो जीतन भाई तुम्हारे हाथों का स्पर्श पाकर जी उठता है।” मैंने फिर से बातचीत का सूत्र जोड़ना चाहा।
“आप ठहरे लेखक आदमी … शब्दों के जादूगर हैं। हमने पूरी ज़िंदगी चमड़े के कारोबार में गर्क की। इतना हुनर तो राम जी की कृपा से हमारे हाथों में आ ही गया है।” जीतन राम ने सुए से काट कर धागे को अलग किया और जूता मेरे पैरों के आगे कर दिया।
“कितना हुआ?” मैंने जूता पहनते हुए कहा।
“ग़रीब को जितना दे दो, कम है साहब।” जीतन ने दीन भाव प्रकट करते हुए कहा।
“भइया हमारा जूता देखकर भी आप इतना अन्दाज़ा नहीं लगा पाये कि हममें और तुममें कोई ज़्यादा फर्क नहीं है।” मैंने दस रुपये थमाते हुए कहा, “अच्छा आपको कैसे खबर हुई हुई कि हम लेखक हैं?” मैंने प्रश्न किया।
“अभी कुछ देर पहले ही आप मोबाइल पर किसी को बोल रहे थे कि आपकी कई रचनाएँ, कविता-कहानियाँ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।” जीतन ने स्पष्ट किया, “तब हमने सुन लिया था।”
“ओह! आपको तो जासूस होना चाहिए! अच्छा, अब मैं चलूँ। ड्यूटी को देर हो रही है” मैं तेज़ क़दमों से दुकान से बाहर निकल गया।
उत्तर प्रदेश के बॉर्डर में एक छोर दिल्ली से तो दूसरे छोर पर नोएडा से सटी अवैध रूप से विकसित खोड़ा कॉलोनी, सरकार की दृष्टि में दशकों से उपेक्षित रही है। इसका विकास तो एक तरफ़ अभी ये भी नहीं पता, ये नोएडा का हिस्सा है या ग़ाज़ियाबाद ज़िल्ले का। ख़ैर इसी खोड़ा कॉलोनी में वीर बाज़ार के पास आठ बाई आठ (8 x 8) गज़ के कमरे में जीतन की मोची की एक छोटी सी दुकान थी। दीवार के तीन हिस्सों में उसके हाथ से बने जूते-चप्पल, सैण्डिल मरदाना और जनाना लकड़ी के फट्टों पर करीने से सजे थे। सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक जीतन राम दुकान में बैठा चमड़े के बीच अपनी रोज़ी-रोटी तलाशता। मैं अक्सर दफ्तर आते-जाते उसी की दुकान के आगे से गुज़रता था। मेरी और उसकी निगाहें कई बार टकरातीं तो हाथ दुआ-सलाम और ‘राम-राम’ के अंदाज़ में उठ जाते। अतः इसी मित्रतावश कई बार जूता-चप्पल ठीक करवाते वक्त मैं उसकी दुकान पर बैठकर उससे बतियाता था। जीतन के घर के अन्य सदस्य भी अक्सर दुकान में दिखाई पड़ते थे। उसकी पत्नी माया कई बार काम में उसका हाथ बटाती थी। अतिरिक्त आमदनी हेतु आजकल वह दुकान के बाहर एक कोने पर भुट्टे बेच रही थी। जीतन के तीन बच्चे थे। बड़ी बेटी लक्ष्मी, उम्र 22 वर्ष, विवाह योग्य हो चुकी थी। जबकि उसका लड़का रघुवर राम, सत्रह वर्ष और छोटी बेटी बीना सोलह वर्ष की थी। अक्सर दोनों बच्चों को भी मैं दुकान पर देखता था। रघुवर या तो बीना को पीट रहा होता या फिर अपने मोबाइल फोन पर कोई खेल खेलता रहता।
“बाबूजी राम-राम। आज तो दफ्तर से जल्दी आ रहे हो।” जीतन ने हल्की मुस्कान चेहरे पर लाते हुए कहा।
“हाँ जीतन भाई, आज जल्दी छुट्टी ले ली।” मैंने कहा।
“कोई खास वजह!” जीतन ने पूछा।
“कल शाम की गाड़ी से बीस दिन के लिए गांव जा रहा हूँ। उत्तराखंड में दो-तीन शादियां हैं। इसलिए आज थोड़ी जल्दी छुट्टी ले ली।” मैंने जल्दी आने का कारण बताया, “ये सोचकर कि घर जल्दी जाकर क्या करूँगा? चलो कुछ वक्त तुम्हारी दुकान पर ही बिता लिया जाये।” मैंने दुकान के भीतर लकड़ी की बैंच पर बैठते हुए कहा।
“अच्छा ग़ाँव कहाँ हैं आपका?” जीतन ने प्रश्न किया और पोलिस करने से पहले हाथ में पकडे नए जूते के फीते खोलने लगा।
“नैनीडांडा, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड में एक छोटा-सा गांव है “मल्ली कांडी” हरे-भरे पहाड़ों को याद करते हुए मैंने कहा।
“अच्छा तो पहाड़ों में जा रहे हैं आप। वहाँ तो ताज़ी आबो-हवा और शुद्ध पानी मिलता है न बाबूजी।” जीतन का प्रश्न मुझे अच्छा लगा।
“लेकिन पेट को तो भोजन चाहिए न जीतन राम जी,” मैंने कहा, “ताज़ी आबो-हवा, खाने और शुद्ध पानी पीने से क्या होता है जी।”
“सही कह रहे हैं बाबूजी, पेट की भूख के कारण ही हम भी पटना, बिहार को छोड़कर खोडा जैसी सड़ी सी जगह पर पड़े हैं।” कहकर जीतन राम ने जम्हाई ली।
“अगर रोज़गार की व्यवस्था हो जाये तो गढ़वाल में रहना स्वर्ग से कम नहीं जीतन भाई।” मैंने पहाड़ों की मधुर स्मृतियों को याद करते हुए कहा।
“तू मनेगी नहीं। सारी गेम ख़राब कर दी।” इसी बीच कहकर रघुवर ने अपनी छोटी बहन बीना के गाल पर एक थप्पड़ रसीद कर दिया। वह रोने लगी। एक कर्कश शोर-सा दुकान में भर गया।
“तू मर क्यों नहीं जाता रघुवर। सारा दिन या तो मोबाइल पर गेम खेलता रहेगा या फिर बीना को रुलाता रहेगा।” जीतन की घरवाली माया बोली। जो इस वक्त भी दुकान के दरवाज़े पर भुट्टे भून रही थी। भुनते भुट्टों की महक पूरी दुकान को महका रही थी। इस महक में चमड़े और पोलिस की गन्ध कुछ दब सी गई थी।
“बाबूजी मैं तो तंग आ गया हूँ इस लड़के से। जीतन राम नए जूते को लोहे के फार्मा पर रखकर दे दनादन कीलें ठोक रहा था।
“बच्चे तो लड़ते-झगड़ते रहते ही हैं।” मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
“पढाई-लिखाई में ज़रा भी मन नहीं है। हर मोबाइल फ़ोन से चिपका रहता है। पता नहीं क्या करेगा बड़ा होकर।” जीतन राम लड़के भविष्य को लेकर चिंतित था।
“आपका तो ठीक है जीतन भाई। लड़का कुछ भी नहीं कर पाया तो जूते बनाने का पुश्तैनी काम कर लेगा। दिक्कत तो हमारे बच्चों को है। अगर सही नौकरी नहीं मिली तो कहीं फैक्टरी में बारह-चौदह घंटे काम करके पूरी ज़िंदगी खपा देगा।” मैंने अपना दृष्टिकोण रखा।
“यह तो आपने कुछ-कुछ सही बात कही है।” जीतन राम ने झिझकते हुए कहा।
“कुछ-कुछ क्या जीतन भाई, सौ फीसदी सही बात कही है।” मैंने अपने दृष्टिकोण को जायज़ ठहराते हुए कहा।
“आपसे मैं सहमत हूँ, लेकिन चमड़े के कारोबार में अब पहले जैसी बरकत नहीं रही। बस मोचीगिरी करके थोड़ा दाल-रोटी चल जाती है।” जीतन ने धन्धे की मौजूदा आर्थिक स्थिति बताई, “मेरी तो दोहरी आफ़त है। कारोबार में आर्थिक मन्दी की मार झेल रहा हूँ। जबकि इसी सर्दियों में बड़ी बेटी लक्ष्मी का ब्याह भी करना है। जो थोड़ा बहुत जमा पूंजी है, सब लगा देंगे शादी में।” अन्तिम शब्द बोलते समय जीतन के चेहरे पर भविष्य की चिंताएं स्पष्ट देखी जा सकती थी।
“बाज़ार सब जगह ही बैठा हुआ है। लोगों के उद्योग-धन्धे बंद हो रहे हैं। मज़दूर बेरोज़गार हो रहे हैं। इंसानों की जगह मशीनों ने ले ली है।” मैंने बाजार पर अपना नजरिया था, अनपढ़ जीतन राम के आगे रख दिया।
“सही कह रहे हो बाबूजी। आजकल लोग तीन-चार सौ में फैक्टरी, कम्पनी के बने जूते पहन रहे हैं। फटने पर लोग उन्हें फेंककर नए जूते खरीद लेते हैं।” जीतन ने अपनी दुखती रग कही।
“आपको पता है यूरोप-अमेरिका में अब मोची होते ही नहीं। लोग नए-नए डिज़ाइन के जूते खरीदते, पहनते और अच्छा-खासा इस्तेमाल के बाद उन्हें फैंक देते हैं। ये सोचकर की इन्हे बहुत पहन लिया। अब नए जूते पहने जाएँ। जूतों की कीमत भी इतनी कम है कि रिपयेर कराने की ज़रूरत नहीं पड़ती।” मैंने विदेश में हुई नयी प्रगति के बारे में जीतन राम को बताया, “और जानते हो दुनिया भारत को बहुत बड़े बाज़ार के रूप में देख रही है। बड़े-बड़े व्यापारी यहाँ अपनी दुकानें खोल रहे हैं। धीरे-धीरे यहाँ की परम्परागत दुकानें और हाथ के कारीगर ख़त्म होते चले जायेंगे।”
“बाबूजी फिर तो बहुत बुरा हो जायेगा। हमारा रघुवर क्या करेगा?” जीतन ने अपनी आशंका प्रकट की तो उसके बाल-बच्चों को ध्यान भी हमारी बातचीत पर केंद्रित हो गया। रघुवर ने मोबाइल के गेम पर अपनी उंगलियाँ चलनी बंद कर दीं, तो बीना भी अपना रोना भूलकर मुझे देखने लगी। भुट्टे भूनती माया का भी कमोवेश यही हाल था।
“घबराने की ज़रूरत नहीं। ये परिवर्तन कोई एक दिन में या एक झटके में होने वाले नहीं। ये परिवर्तन इतने महीन और धीरे-धीरे होंगे कि हमें खुद इन्हें स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होगी।” मैंने हँसते हुए कहा ताकि जीतन और उसके परिवार वाले अपने मन में कोई गलत धारणा न बना लें।
“मैं कुछ समझा नहीं, धीरे-धीरे परिवर्तन कैसे होंगे?” जीतन ने असमंजस की स्थिति में खुद को पाया।
“आप देखो, जब तक अंग्रेज़ हमारे ऊपर हुकूमत कर रहे थे। हम भारतीय परिधान कुर्ता पायजामा पहनते थे। उनके जाने के बाद अब बड़ी शान से पैन्ट, कमीज, कोट, टाई पहनते हैं। लड़कियों ने तो टी-शर्ट, जींस, टॉप-स्कर्ट आदि पहनने में अंग्रेज़नों तक को पीछे छोड़ दिया है।” मैंने उस महीन और धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तन का अहसास दिलाते हुए कहा, “पहले हम भारतीय क्या खाते थे? रोटी-सब्जी, दाल-चावल, हलवा-पूरी-खीर आदि भारतीय व्यंजन।” मैंने भवें बड़ी करते हुए जीतन से पूछा, “और बताओ अब हम क्या-क्या नहीं खाते हैं? पिज्जा, बर्गर, ब्रैड, ममोज, चाऊमीन, इटैलियन, ब्रितानी, चीनी, जापानी आदि दुनिया-जहान के व्यंजन। कई बार तो हमें पता भी नहीं होता कि हमने जो खाया, वह किस देश का व्यंजन है। यह सब समय के साथ-साथ हुए महीन परिवर्तन ही तो हैं।” सब मेरी बातों को ऐसे सुन रहे थे। जैसे मैं कोई बहुत बड़ा जादूगर हूँ और उन सबको कोई जादू करके दिखा रहा हूँ। फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने जीतन की तरफ प्रश्न उछाला, “अच्छा जीतन अगर हम अपने दादा-परदादा को टाई पहनने को या पिज्जा-बर्गर खाने को कहते तो क्या वो लोग ऐसा करते?” मैंने जीतन से कहा।
“नहीं।” जीतन ने ‘ना’ में सिर हिलाया।
“उलटे वो लोग हमें भारतीयता के उपदेश देने लगते! जबकि ये चीज़ें, आज हमारे जीवन का अहम हिस्सा हैं!” मैंने वर्तमान समय में हुए बदलाव की तरफ़ जीतन के दिमाग़ का रुख़ किया, “क्या मोबाइल के दौर में हम लैंड लाइन का इस्तेमाल करेंगे? नहीं न।” और जीतन ने सहमति में सिर हिलाया। मैंने अपनी बात के समर्थन में लगभग जीतन राम का ब्रैनवास करते हुए कहना ज़ारी रखा, “ये तो वो बात हो जाएगी, कम्प्यूटर के दौर में हम टाइपराइटर पर टाइपिंग करके अपनी उंगलियाँ तोड़ रहे हैं! या फिर बहुत से रोचक चैनलों, मसलन ‘स्टार’ और ‘जी’ नेटवर्क के रोचक प्रोग्राम को छोड़कर, दूरदर्शन पर घिसे-पिटे प्रोग्राम देखकर टाइम पास कर रहे हैं!”
“हाँ, बाबूजी आप सही कह रहे हैं। लेखक जो ठहरे।” जीतन राम हैरानी से बोले।
“ये भुट्टे कैसे दिए?” मैंने जीतन की घरवाली माया से कहा।
“पाँच रुपये का एक है।” माया जैसे यकायक किसी नींद से जागी। लगभग यही हाल रघुवर और बीना का भी था। रघुवर पुनः मोबाइल की नई गेम में व्यस्त हो गया। बीना उसे खेलते हुए देखने लगी।
“देख लो बाबूजी मन्दी की मार। मोची की घरवाली को घर चलाने के लिए भुट्टे बेचने पड़ रहे हैं।” जीतन राम ने हँसते हुए कहा और फरमे पर नया जूता चढ़ा लिया तथा उस पर कील ठोकने लगा।
“ठीक तो है जीतन भाई। अतिरिक्त आमदनी किसे बुरी लगती है?” मैंने कहा, “चार भुट्टे बांध देना बहन जी, खूब नमक-नीम्बू लगाके। मेरी घरवाली को बहुत पसंद है।”
“जी भाई साहब!” और ख़ुशी-ख़ुशी माया ने ताज़ा भुने हुए चार भुट्टों पर अच्छे से नींबू-नमक लगाकर उन्हें पन्नी में डाल दिया।
“अच्छा जीतन भाई, अब मैं चलूँ।” माया को २० रुपये पकड़ाते हुए, भुट्टे अपने हाथ में लेते समय मैंने कहा, “कल की यात्रा के लिए कुछ तैयारी भी करूँगा। घर जाकर सामान-वामान पैक करना है।”
“लेखक साहब ज़रा रुकिए।” जीतन ने अपने थैले में से कुछ निकला। यह ज्वैलरी बॉक्स था।
“ये क्या है?” मैंने पुनः बैठते हुए कहा।
“ये सोने के कुछ जेवर हैं। जो लक्ष्मी बिटिया की शादी के लिए बनाये हैं। कान की बालियां। नाक की नथनी। मांग टीका और सोने के कंगन।” जीतन राम ने मुझे अपना समझके सारे जेवर दिखाए और मेरी राय जाननी चाही।
“पूरे तीन लाख से ऊपर रूपये लग गए बाबूजी,” पीछे से माया भुट्टे भूनते हुए बोली।
“बहुत बढ़िया। अति उत्तम। खूबसूरत गहने बने हैं। दाम भी ठीक हैं।” मैंने गहने देखे तो तारीफ़ किये बिना न रह सका।
“अब तो पीतल भी सोने के भाव हो रहा है बाबूजी।” जीतन ने कानों की बालियाँ मेरी और बढ़ाते हुए कहा।
“बिल्कुल आप सही कह रहे हैं जीतन भाई।” मैंने बालियों के वज़न को हाथों में लेकर तौला और बालियाँ जीतन को वापिस थमा दीं।
“गले का हार लड़के वाले खुद बनाएंगे, इसलिए हमने नहीं बनाया।” जीतन ने बालियों को करीने से बॉक्स में वापिस रखते हुए कहा। फिर अन्य जेवरों को भी उसी प्रकार बड़ी एहतियात बरतते हुए जीतन राम अन्य बॉक्सों में रखने लगा।
“बाबा चाय।” तभी सामने से चाय का थर्मस लिए एक युवती ने प्रवेश करते हुए जीतनराम के आगे थर्मस रखते हुए कहा।
“लो लक्ष्मी बिटिया भी आ गई शाम की चाय लेकर। बड़ी लम्बी उम्र है इसकी।” जीतन ने मुस्कुराते हुए कहा, “अभी बाबूजी को, हम तुम्हारी शादी के जेवर ही दिखा रहे थे।” शादी का नाम सुनते ही लक्ष्मी लज्जा गई। वह सामने लकड़ी के सेल्फ़ में रखे गिलासों को निकलने लगी।
“एक गिलास और निकाल दे। बाबूजी भी चाय पियेंगे।” जीतन ने मेरी ओर देखकर थोड़ा झिझकते हुए कहा, “बाबूजी आप हमारे हाथ की चाय पी सकेंगे!”
“अरे आज के आधुनिक युग में कौन से पुराने ज़माने की बात करते हो जीतन भाई!” मैंने थोड़ा हँसते हुए जीतन भाई की झिझक दूर करते हुए कहा, “फिर तुलसी बाबा कह गए हैं — जाति-पाती पूछे न कोई। हरि को भजे सो, हरि का होई।” गिलासों में चाय रखने के बाद लक्ष्मी सभी को चाय के गिलास देने लगी। मेहमान के तौर पर पहले मुझे चाय दी गई। “शुक्रिया,” कहकर मैं चाय पीने लगा। इसी बीच लक्ष्मी का मोबाइल रिंग टोन बजाने लगा। लक्ष्मी ने नंबर देखा तो शरमा गई।
“लगता है, जवाई जी का फ़ोन है।” जीतन राम चाय की चुस्कियां लेते-लेते हँसते हुए बोले।
“जी बाबा।” कहकर लक्ष्मी दुकान से बाहर चली गई। कोई दस हाथ दूर सामने खाली पड़े प्लाट की ओर।
“हैलो जी, कैसे हो आप?” फ़ोन रिसीव करते ही लक्ष्मी के कानों में उनकी आवाज़ पड़ी।
“आप भी न, मौक़ा मिलता नहीं और फ़ोन कर देते हो।” लक्ष्मी ने नाराज़गी ज़ाहिर की, “आपको पता है न इस वक्त हम दुकान में बाबा को शाम की चाय देने जाते हैं।”
“ओह सॉरी डार्लिंग, क्या करूँ मन है कि मानता नहीं!”
“क्यों क्या हुआ मन को?”
“खुद ही चुराकर हमसे पूछ रही हो।”
“फालतू बातों का टाइम नहीं है हमारे पास। कुछ काम की बात है तो जल्दी कहो।”
“अच्छा, कल मॉल चलेंगे। आपके लिए कुछ शॉपिंग-वापिंग करेंगे। रेस्तराँ में खाना-पीना करेंगे। नई फिल्म देखेंगे, और क्या?”
“अच्छा जी, शादी से पहले इतनी फ़िज़ूलख़र्ची!”
“यही तो वक़्त है मैडम, घूमने-फिरने का। फिर तो बाद में सारी ज़िंदगी ज़िम्मेदारियाँ ही उठानी हैं।”
“काफ़ी बातें हो गईं। चलो फ़ोन रखती हूँ। वहाँ अंदर दुकान में सब न जाने क्या-क्या सोच रहे होंगे?” फ़ोन काटकर तेज़ क़दमों से लक्ष्मी दुबारा दुकान के भीतर चली आई।
“बहुत अच्छी और कड़कदार चाय बनाई है लक्ष्मी बिटिया तुमने।” मैंने ख़ाली गिलास नीचे फ़र्श पर रखते हुए कहा, “अच्छा जीतन भाई अब मैं चलता हूँ। काफ़ी देर हो गई है। फिर उत्तराखण्ड के सफ़र की तैयारी भी करनी है। सामान-वामान पैक करना है।”
बीस दिनों के बाद जब मैं गाँव से लौटा। देखकर हैरान रह गया कि जीतन राम की दुकान वहाँ नहीं थी। अब वहाँ कोई नया व्यक्ति खाने-पीने की चीज़ों की दुकान सजाये बैठा था। मसलन, ममोज़, चाऊमीन, बर्गर, पिज़्ज़ा, समोसा, ब्रेडपकोड़ा, कोल्ड ड्रिंक्स, और चाय इत्यादि। लोग-बाग आ-जा रहे थे। कोई खाने-पीने चीज़ें पैक करवा रहा था। कोई दुकान पर ही खा-पी रहा था। कुल-मिलकर कहना यह की रोज़गार गरम था। मैंने समोसा और चाय ऑर्डर की।
“साहब आपका ऑर्डर।” कहने की देर थी। पहले से ही तैयार चाय-समोसा मेरे मेज़ पर रखते हुए लड़का बोला।
” सुनो, भाई यहाँ जो मोची बैठता था। उसका क्या हुआ? वह कहाँ है?” मैंने प्रश्न किये।
“साहब बहुत बुरा हुआ बेचारे के साथ। हफ्तेभर उसकी बेटी प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती रही। फिर मर गयी। मोची पर 12–14 लाख रूपये क़र्ज़ हो गया था। आनन-फानन में उसने अपनी दुकान हमारे मालिक को बेच दी।” लड़के ने संक्षेप में बताया।
“कौन लड़की बड़ी या छोटी वाली?” मैंने समोसा तोड़कर चटनी में डूबते हुए कहा।
“साहब उसकी बड़ी लड़की।” लड़के ने बताया, “जिसका ब्याह होने वाला था।”
“लेकिन लक्ष्मी तो ठीकठाक थी।” मैंने आश्चर्य व्यक्त किया।
“साहब लक्ष्मी का एक्सीडेंट हो गया था।” लड़के ने बताया, “वो अपने मंगेतर के साथ शिप्रा मॉल से शॉपिंग करके वापिस लौट रही थी कि नोएडा सेक्टर बासठ के चौराहे पर ट्रक वाले ने उनकी बाइक को ज़ोरदार टक्कर मारी। लड़का तो मौके पर ही मर गया लेकिन लड़की कोमा में चली गयी।”
“छोटू वहाँ क्या गपशप कर रहा है। यहाँ दूसरे ग्राहक के लिए ममोज पैक कर!” इससे पहले की लड़का कुछ और कहता, मालिक दुकान उस पर बुरी तरह चिल्लाया। मैंने समोसा मुँह की तरफ बढ़ाया ही था कि लक्ष्मी का चेहरा आँखों के सामने घूम गया। आँखें नम हो गयी और ह्रदय भारी हो गया। मन भर गया। समोसा पलेट में वापिस रखते हुए मैं वहां से उठ गया। बिना कुछ खाए-पिये मालिक दुकान को पैसे देकर मैं वहाँ से लौट आया। क़दम उठाये नहीं उठ रहे थे। हृदय जीतन से जुड़ी यादों से ग़मगीन हो गया। हे भगवान, कितने प्यार से जीतन ने लक्ष्मी के शादी के जेवर बनाये थे! और बड़ी आत्मीयता के साथ मुझे दिखाए थे! हे प्रभु, ये क्या कर डाला? क्यों अपने बगीचे से तूने हरी-भरी डाल को तोड़ डाला? उस रात काफ़ी देर तक जीतन की दुकान से जुडी यादें मुझे विचलित किये रही। मेरी पत्नी के लाख कहने के बावज़ूद भी मैं रात्रि का भोजन नहीं कर सका। अपनी पत्नी को जब मैंने उस हादसे के बारे में बताया तो वह भी रो पड़ी। हालाँकि उसने कभी लक्ष्मी का चेहरा नहीं देखा था और न वह जीतन के परिवार से कभी मिली थी। लेकिन मैं अपनी घरवाली को जीतन और उसके परिवार के बारे में इतने विस्तार से बताता रहा था कि उसकी निगाहों में जीतन के परिवार का चित्र बनने लगता था। उसे मैंने बताया था, लक्ष्मी बिलकुल हमारी बिटिया मोनाली की तरह ही दिखाई देती है। इस तरह लक्ष्मी की मौत की खबर से मेरी पत्नी भी विचलित हो गई थी। रह-रहकर लक्ष्मी का मासूम-अबोध चेहरा मेरी आँखों के सामने घूमता रहा। मैं मन में दुर्घटना की कल्पनायें कर-कर के अन्दर ही अन्दर रो रहा था। अपने सोते हुए बच्चों की तरफ देखकर दुआ कर रहा था। परमात्मा इन्हे कोई दुःख-तकलीफ़ या दर्द मत देना। कोई अनहोनी हो जाए तो पहले मुझे उठा लेना। उस रात अपनी बेटी के सिर पर सनेह से हाथ फेरते हुए और उसे सैकड़ों दुआएं देते हुए, न जाने कब मुझे नींद आ गयी।
“साहब दिल्ली स्टेशन आ गया है। आप किन विचारों में खोये हैं।” सहयात्री ने मुझे झकझोरते हुए जैसे नींद से जगाया। लोग अपने सामान के साथ ट्रेन से नीचे उतर रहे थे। तभी कोई शख़्स मेरे करीब से कुछ गाते हुए गुज़रा, “आदमी मुसाफिर है। आता है। जाता है। आते-जाते रस्ते में यादें छोड़ जाता है।” और मैं जीतन की यादों को हृदय में समेटते हुए। अपना बैग कंधे पर टांगे हुए ट्रैन से नीचे उतर गया।