जिसमें दर्द पिरो देता हूँ
तन्हाई में ओंठ भींचकर, अक्सर गाल भिगो लेता हूँ।
मुझको कब हसरत मजमें की, खुद से दुखड़ा रो लेता हूँ।
बैरी नींद, चैन अनजाने, दीवानों के ये अफसाने।
ढूंढ रही हैं बेबस आँखें, कहाँ छिपे हैं ख्वाब न जाने।
शब गुजरी पर नहीं जहन को, मिले गीत के ताने बाने।
ये मेहमान न करते शिरकत, गर दुख दर्द न हों सिरहाने।
इन गैरों को खुश करने को, खुद पर काबू खो देता हूँ।
खुद ही गीत लिखा गाया है, अपना दिल यूँ बहलाया है।
जीवन भर की सरगम खोकर, बस इतना अनुभव पाया है।
सुनने वाली रसनाओं से, तब तक वाह नहीं निकली है।
जब तक गीत सुनाते गाते, दिल की आह नहीं निकली है।
गीत वही भाता है सबको, जिसमें दर्द पिरो देता हूँ।
संजय नारायण