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9 Nov 2017 · 1 min read

जिश्म में छूपा दोपहर रखती है

वो होठों में अपने गंगा सा जल रखती है
हर पल जाने क्यों मुझ पे नजर रखती है

गुलसनों की बात उसके सामने क्यो करूँ
वो बदन पर ही फूलो के शजर रखती है

जब जिश्म चदर सा बिछ जाता है उसका
लिहाफ की सिलवट खुद में लहर रखती है

उसकी आँखों में जाने कहाँ खो गया हूँ मैं
वो आँखो में ही छुपा कर समंदर रखती है

जरा गौर से देखना तुम मेरे दोस्तों उसको
तुम्हारी भाभी तो नजरों में खंजर रखती है

तेरे इस बेदाग़ चाँद से चेहरे पे लटकती लट
अपने आप में जहरीला इक अजगर रखती है

जब रुखसार करती हो मेरे इस दिल पर जाँ
लहरों का उमड़ता एक वो समंदर रखती है

मोहबत के खेल में वो अनजान नही है प्यारे
मनमोहन कृष्ण से वो भी कई हुनर रखती है

ऋषभ कड़कती सर्दी से तुझको क्या परेशानी
वो अपने इस जिश्म में छुपा दोपहर रखती है

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