जिन्हें रोज देखते थे
जिन्हें रोज देखते थे इन गलियों में,
आते-जाते हमने
ओ आज कल ,न जानें कहां, खोए-खोए से रहते हैं
नाराज़ हैं मुझसे,या कोई बात हों गई हैं
कुछ समझ ना पाए हम ,ओ क्यों ख़ामोश रहते हैं
जो मुझे देखकर कभी खिल जाते थे,जो मेरे बिछड़ने के नाम से डर जाते थे
ओ आज कल ,न जाने क्यो हमसें खफा-खफा रहते हैं।
जिन्हें रोज देखते थे इन गलियों में,
आते-जाते हमने
ओ आज कल ना जाने कहां खोए-खोए से रहते हैं
कोई खता हो गई हैं हमसे,या अब ओ मुझसे दूर होना चाहते हैं।
कुछ समझ ना आएं, आखिर ओ हमसे क्या चाहते हैं
जो कभी बहाने बनाकर मुझसे मिलते थे
जो कभी मेरे साथ जीना-मरना चाहते थे
ओ आज कल न जाने कैसी गुमशुदगी में जीते हैं
जिन्हें रोज देखते थे इन गलियों में,
आते-जाते हमने
ओ आज कल ना जाने कहां खोए-खोए से रहते हैं
सामने है मेरे , फिर भी
मगर बैठे हैं पास ऐसे, जैसे अंजान हैं हम आज भी
कुछ समझ ना आएं, क्या उनको हो गया
जो बिन होंठों को हिलाएं सब कह देते थे,
जो मेरे बिन कहे सब सुन लेते थे
ओ आज कल, न जाने क्यों कुछ कहने से डरते हैं
जिन्हें रोज देखते थे इन गलियों में,
आते-जाते हमने
ओ आज कल ना जाने कहां खोए-खोए से रहते है
आज भी करतीं हूं प्यार तुम्ही से
मगर मजबूर हूं ,जान मेरे, मैं खुदी से
शायद यही तक मेरा-तेरा साथ था
तुझपे ना आए ,कोई आंच, इसलिए ये दिल चुप था
जो कल करतीं थीं प्यार ,ओ आज भी करतीं हैं
तेरे लिए ही ओ जीती-मरती हैं।।
नितु साह(हुसेना बंगरा) सीवान -बिहार