जिन्दगी
रिश्तों की परते उधड़ने लगी है ।
आँखे भी रातो को जगने लगी हैं ।।
चाहत दफ़न थी अभी तक जो मेरी।
वो भी दीवारों पर सजने लगी है ।।
रिश्तों की परते उधड्ने लगी है ।।।
बेशक मुझे इल्म इतना नही है ।
मन है कहीँ पर तो मैं हू कहीँ पर,
देखा है मैने फरेब यहाँ पर,
की धड़कन भी अब तो डरने लगी हैं ।।
कुछ जख्म है जो अब दिखते नही है ।
कुछ नगमें ऐसे भी है जो बिकते नही है।
जमी थी बर्फ अरमानो पर अब तक,
धीरे से वह भी पिघलने लगी है ।
धीरे से वह भी पिघलने लगी है ।।
रिश्तो की परते…
बहुत कुछ है पाया बहुत कुछ है खोया,
न एक पल सकून था,न रातो को सोया,
लड़खड़ाती हुई थी अब तलक जो जिन्दगानी,
धीरे धीरे से वो भी संभलने लगी है ।
धीरे धीरे से वो भी संभलने लगी है ।।
रिश्तो की परते———