जिद कहें या हठ बात तो एक ही है!
हम जिद कर बैठते हैं,
अपनी मनवाने के लिए,
वो हठ कर डालते हैं,
न मानने के लिए!
हमारी जिद और उनकी हठ,
जूझने लगती है,
पल,
दो पल,
घड़ी, दो घड़ी,
और फिर,
आता है वह समय,
जब थकने लगता है,
शरीर,
उबने लगता है,
मन,
और
डरावने आते हैं विचार,
करलें में यह,
अब भी पुनर्विचार,
क्यों कि,
तू कमजोर पड़ रहा है,
सामने जो है,
वह एक व्यवस्था है,
और उसके साथ जो खडा है,
वह उस व्यवस्था के कारण अड़ा है!
सामान्य तह:,
अकेला,बिकेला,
अपनी जिद,
छोड़,
घुटने टेक देता है,
इस व्यवस्था के आगे,
और ढूंढने लगता है,
मध्यम मार्ग,
अपना काम चल जाए,
सामने वाले की,
हठ,
उसके अनुसार ही हल हो जाए!
अक्सर ऐसा ही होता आया है,
जब,
आम मानवी ने,
अपनी जिद को,
अपने अनुसार,
अपनी मंजिल तक पहुंचाया है,
पर वो,
विरले ही होते हैं,
जो, अपनी जिद को पाल लेते हैं,
और तब तक उस पर अडे रहते हैं,
जब तक,
जिद हल ना कर दें,
या फिर,
अपने प्राणों का,
उत्षर्ग ना कर लें,
बड़े जुनूनी होते हैं,
यह लोग,
इनका,
सबसे बड़ा अस्त्र है यह रोग,
और इसी लिए,
इन्हें अपने निज रोग की भी परवाह नहीं होती,
होती है,
तो सिर्फ अपनी जिद पर मर मिटने की चाह होती है!
ऐसे ही लोगों के बलबूते पर,
शायद हमको ये आज़ादी मिली है,
ऐसे ही लोगों के संघर्षों के बल पर,
शायद हमको सत्ता परिवर्तन की,
राह मिली है,
अन्यथा,
पहले भी तो,
आजादी पर पहरे लगे थे,
लेकिन,
समय-समय पर,
हमें,
गांधी, सुभाष, भगतसिंह, आजाद,
जैसे नायक मिले थे,
उन्हीं के पदचिन्हों पर,
चलने वाले,
लोहिया और जयप्रकाश मिलें थे,
अब भी कोई ना कोई,
जरुर अंगड़ाई ले रहे होंगे,
जो वर्तमान परिवेश में,
परिवर्तन की चाह में,
लगे होंगे!
अब यह तो पता नहीं,
उनकी जिद,
किस श्रेणी की है,
समय के साथ,
बह जाने की हद तक,
या फिर,
आम मानवी की भांति,
अपना काम चल जाने तक,
सीमट जाने तक की है!
लेकिन हठ की कोई सीमा नहीं होती,
हठ आगे चलकर हठधर्मिता में बदलती है,
क्योंकि,
हठ करने वालों के पास,
एक सशक्त व्यवस्था जो होती है,
जो उनके अहं को,
डिगाने में बाधक होती है,
और फिर शायद,
वह भी जिद पाले हुए की,
जिद के आगे ना झुकने,
की कसम खाए हुए होते हैं!!