जितनी बाहर चहल पहल है
जितनी बाहर चहल पहल है,
उतना भीतर एकाकी मन,
रिश्तों से जब दर्द ही मिलता,
खुद में सिमटे बैरागी मन।
उम्मीदों का बढ़ते जाना,
कष्ट सदा ही देता है,
तुमने क्यों उम्मीद लगाई,
आरोप मढ़े ये बेबाकी मन।
हृदय सदा ही दुखा हैं देते,
हृदय में अक्सर रहने वाले,
मरुथल में तो रेत मिलेगी,
पानी ढूंढे सैलानी मन।
चेहरा चेहरा भेद भले हो,
भीतर से सब एक ही जैसे,
आंसू देकर हाल पूँछते,
मुझको कहते आरोपी मन।
वर्षा श्रीवास्तव”अनीद्या”
मुरैना (म.प्र)