जितना आवश्यक है बस उतना ही
आज हम सब अधिकाधिक वस्तुओं के संग्रह में प्रवृत्त हैं।प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक जोड़ने में लगा है। अपने लिए ही नहीं बल्कि हमारे बाद आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हम जोड़कर रख देना चाहते हैं।
इस आपाधापी में हम अपने जीवन को निश्चिंतता और आनंद के साथ जीने से चूक जाते हैं। जबकि हम सब जानते हैं कि सब छूटने वाला है। वैभवयुक्त जीवन जीना बुरी बात नहीं है पर जितना आवश्यक है बस उतना ही ।
चलिए इसे ऐसे समझते हैं, पशुओ को देखिये ! वे सुबह से लेकर शाम तक उतनी खुराक खाते चलते हेैं, जितनी वे पचा सकते हैं। पृथ्वी पर बिखरे चारे-दाने की कमी नहीं है। सवेरे से शाम तक कुछ नहीं घटता। परंतु पशु-पक्षी लेते उतना ही हैं, जितना मुँह माँगता और पेट सम्हालता है।
उतना ही बड़ा घोंसला बनाते हैं, जिसमें उनका शरीर समा सके। कोई इतना बड़ा घोंसला नहीं बनाता, जिसमें समूचे समुदाय को बिठाया सुलाया जाए। पेड़ पर देखिये हर पक्षी ने अपना छोटा घोंसला बनाया हुआ है और जानवर भी अपने रहने लायक छाया का प्रबन्ध करते हैं।
सृष्टि के समस्त जीव जानते हैं कि सृष्टा के साम्राज्य में किसी बात की कमी नहीं। जब जिसकी और जितनी जरूरत है, आसानी से मिल जाता है। आपस में लड़ने का झंझट क्यों मोल लिया जाय ? हम उतना ही लें, जितनी तात्कालिक आवश्यकता हो। ऐसा करने से हम सुख-शांतिपूर्वक रहेंगे भी और उन्हें भी रहने देंगे, जो उसके हकदार हैं।
इसके विपरित सृष्टि के सर्वोत्तम जीव मनुष्य में अधिक से अधिक इकट्ठा करने की प्रवृत्ति न जाने कहां से आ बैठी है ? वह इकट्ठा करने में सारा जीवन व्यय कर देता है और जब भोगने का समय आता है तब शरीर साथ नहीं देता फिर मन के अनुसार न तो खा सकते हैं न पी सकते हैं, सिर्फ़ पछता सकते हैं। अत: जितना आवश्यक है उतना ही संभालिए और जिंदगी का लुत्फ़ लीजिए.
पंकज प्रखर
कोटा