जिजीविषा की जिदें
दरकती दीवारों के उस पार,
तलाश रहा हूँ,
प्रारब्ध की रौशनी,
गीली मिट्टी में,
हथेलियाँ बार-बार
छापकर, पोतकर,
निखार रहा हूँ,
भाग्य की लकीरें
उफनती नदी के किनारे,
घंटों बैठकर,
जुटा रहा हूँ
पार जाने की हिम्मत।
न थका हूँ न बुझा हूँ
न विदीर्ण हूँ न घायल हूँ
न टूटा हूँ न बिखरा हूँ
न विछिन्न हूँ न धूमिल हूँ
किंतु,
त्याग रहा हूँ,
आज, अभी से,
जिजीविषा की जिदें।
आई थी दरवाजे पे,
आज भी गौरैया,
फुदकी,चहकी,उड़ी, बैठी,
कुछ तो कह गई होगी वो मुझसे,
खिली है आज भी,
गुड़हल पे फूलों की लाली,
तुलसी पे और हरियाली
गेंदा प्रण करते हैं,
कुंवार कार्तिक में,
सजाएंगे मेरा घर मंदिर देहरी,
होगी नवरात्र दीवाली।
गैया रंभाती है नीम तले,
चिड़ियाँ अनगिनत भीगती हैं,
मेरे खेतों के क्षणभंगुर तलाबों में,
गन्ने के हरे-भरे खेत,
दूर-दूर तक फैली दलहनें,
धान की पनपती रोपाई,
घुटनों तक भर आई,
सावन का पानी,
मौसम की जवानी,
सब मुझे बेफ़िक्र कर रहे हैं,
सभी मुझे बेपरवाह कर रहे हैं।
मैं भी रम रहा हूँ,
आज, अभी से,
मदमस्त कायनात के,
इन नजारों में,
किंतु,
त्याग रहा हूँ,
आज,अभी से,
जिजीविषा की जिदें।
-✍श्रीधर.