जिऊं तो सुहागन मरु सुहागन
सोलह बारे बरत रखूं न हो कोई चुभन
फल में मांगू जिऊं तो सुहागन मरु तो सुहागन।
मैं सजती तब थी जब सँवरती नहीं थी
मेरा सँवरना जैसे रुप तेरा मोहन।
जिंदगी हों या रस्ते तेरे हाथों से पार हुई
हाथ हैं कश्ती और कश्ती में मेरा मन।
मेरी जिंदगी आप हो मेरा भेद न जिवन न मरन
सुनी हो जायेगी कुसुम बिन बगिया के जैसे अभागन।
जब घड़ी आये मेरी तो लाली और सिंदूर लगाना
मैं फिर संवर जाऊं मोहन जब तेरी आँखे हो दर्पण।
झरना खींचें जब कश्ती तब छोड़ देना मन
लहरें बनकर पार कर दू कश्ती ऐसे होगा मिलन।
हरि तेरे अवतारों को जानुं पूरी कर देना ये प्रण
फल मैं मांगू जिऊं तो सुहागन मरु तो सुहागन।