जिंदा हूँ अभी
ग़मो के इस मौसम में, तन्हाईयों के आलम में,
मैं ग़म के साथ निकल आया,
घर से ग़म भी उठा लाया,
मैं हूँ अभी जिंदा मुझें जीने दो,
अपनें आँसू को मुझें पीने दो,
मर मर के मुझें नहीं जीना है,
कतरा कतरा आँसू तो नहीं पीना है,
आज ये आँखे तो भोड़ दो यारों,
अंदर से सारा सैलाब निकाल दो यारों,
भरी दुनियाँ में ग़मो में जिया करता हूँ,
चलती राहों में भी जी लेने दो,
मैं हूँ अभी जिंदा मुझें जीने दो,
अपनें आँसू तो मुझें पीने दो,
मेरे दुश्मन हैं मेरे अपने ग़म,ग़म बाद आँसू बहाने से ये ना होंगे कम,
सितम रब का मैं ना सह पाऊँगा,
बिन रोये अब ना रह पाऊँगा,
मुझें उस रब से तो अब टकराना है,
ऐसे हालात में मुझें रोने दो,
मैं हूँ अभी जिंदा मुझें जीने दो,
अपनें आँसू तो मुझें पीने दो,
मेरी हर शाम बड़ी बोझल है,
मेरी हर रात भी बड़ी क़ातिल है,
मेरी हर शाम तो ढलेगी कैसे,
मेरी हर रात भी ढ़सेगी कैसे,
आग से आग बुझेगी दिल की,
मुझें आज ये आग भी पी लेने दो,
ग़मो के इस इस मौसम में,
तन्हाईयों के हर आलम में,
मैं अभी जिंदा हूँ मुझें जी लेने दो,
अपनें आँसू तो मुझें पीने दो।।
मुकेश पाटोदिया”सुर”