जिंदा रहने के लिए
अभी अभी मेरा अंंत:करण जागा
और सीधे साफ शब्दों में जैसे आदेश देने लगा।
बहुत जी लिया औरों के लिए
अपने लिए कब जियोगे?
इस पर भी कभी मनन किया है?
या तुम्हें ये जीवन व्यर्थ ही मिला है
मैं सकपका गया क्या ऐसा भी हो सकता है
कि जीते हुए जीवन के उत्तरार्ध में आ गया
और अपने लिए जीने की बात ही भूल गया।
बड़े असमंजस में फंस गया
और फिर विचार करने लगा।
तब समझ में आया कि सचमुच मैं गुमराह हो गया
जीवन जीने के सलीके भी नहीं सीख पाया।
शांत चित्त से सोचने लगा- ये मैंने क्या कर दिया
जीवन का उद्देश्य यूँ ही बेकार कर दिया।
सच ही तो है मैंने अपने लिए क्या किया?
न धन संपत्ति एकत्र किया, न ही परिवार संभाला
सारा बोझ भगवान के कंधों पर ही डाला।
अब समझ में आया भगवान ने तो मुझे था चेताया
पर मैं ही मूर्ख था,जो उनके इशारे भी नहीं समझ पाया।
वरना मैं भी औरों की तरह आज साधन संपन्न होता
नेता, विधायक, मंत्री, उद्योगपति, बड़ा कारोबारी होता
अपराध जगत में कदम बढ़ाता तो
कम से कम बड़ा माफिया जरुर होता
और अपना भी नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमकता।
ये सब नहीं तो घोटाले या बैंकों से धोखाधड़ी करता
और विदेश भागकर चला जाता
जीवन का पूरा पूरा लुत्फ उठाता और मौज करता
अखबार, टीबी, सोशल मीडिया में छाया होता।
कुछ भी करता तो कम से कम अभावों में तो नहीं जीता
बच्चे छोटी छोटी सुविधाओं के लिए तो नहीं तरसते,
दरवाजे के पर्दे पर जगह जगह पैबंद तो नहीं होते,
थोड़ी समझदारी दिखाता तो
कम से कम आज ये दिन तो नहीं देखने पड़ते।
मगर मुझ पर तो सिद्धांतों का भूत सवार है
बस इसीलिए औरों के लिए जीता हूं
औरों के सुख से सुखी और दुःख से दुःखी होता हूँ।
हर किसी से बेवकूफ होने का सम्मान पाता हूँ,
फिर भी प्रसन्नचित रहता हूँ
यह और बात है कि अपने परिवार,
अपने बीबी बच्चों से रोज ही नज़रें चुराता हूँ।
फिर भी अपनी बेवकूफी से बाज नहीं आता हूँ,
शायद जीने के सलीके नहीं जानता हूँ।
उलाहनाओं से कभी बेचैन नहीं होता
अपनी बेवकूफी पर हँस भी लेता हूँ
पर बेवकूफियों से दूरी नहीं बनाता हूँ
क्योंकि ये मेरा अपना जीवन है,
जिसे मैं अपनी शर्तों पर जीने का आदी हूँ
इसीलिए किसी की भी नहीं सुनता हूँ
बेवजह किसी को भाव नहीं देता हूँ।
बस! इसलिए अंत:करण की बात भी नहीं सुनता हूँ
और अपनी राह पर आगे बढ़ता हूँ,
क्योंकि मैं जीने के लिए नहीं
जिंदा रहने के लिए जीता हूं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश