“जिंदगी”
जिंदगी कभी श्वेत श्याम सी,
कभी हो जाती है रंगीन।
इसको भी आता है खेलना,
मदमस्त हो खेल संगीन,
कभी कहीं झुक जाती है,
तो कहीं अकड़ दिखाती है,
किस्सा इसका भी देखो,
कैसे चलता रहता है,
कभी नाव गाड़ी पर ,
तो कभी गाड़ी नाव पर,
अजब गजब है खेल इसका,
कभी सहला जाती है,
तो कभी रुला जाती है,
उलझन में रहती कभी तो,
कभी गांठें खोल जाती मन की,
असंख्य रश्मियों से हो उद्दीप्त,
कभी रश्मिरथी सी बन जाती,
हो सवार मैं उस पर जाती ,
दिनमान की सैर कराती,
कभी बादल बन उड़ जाती,
और कभी बरखा सी बरस जाती,
जिंदगी कभी श्वेत श्याम सी ,
कभी हो जाती है रंगीन।
© डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”