जिंदगी
मत सुलझना ज़िंदगी
उलझी रहो तुम
तुम जो सुलझी
लोग उलझन में उलझते जाएँगे
प्रेम कृत्रिम सा बनाकर
नेह पर भी सूद लेते जाएँगे
ज़िंदगी खुद क़र्ज़ है
किसी और की है यह अमानत
इतना समझ लो
उलझनों के झाड़ झाँखड़ से खुद को
पल दो पल दूर कर लो
गर सुलझने का कभी भी मन करे तो
उलझनों के साथ बैठो
हँसकर जियो, जी भर हँसो
और फिर
विकलांग विधि पर व्यंग्य कर लो
उलझी रहो,उलझी रहो
सुलझो नहीं तुम
मनुज हित आज तुम इतना जरा सा त्याग कर लो
प्रेम ही दो,प्रेम पाओ
प्रेम के ही राग गाओ,
प्रेम से दीपक जलाकर
प्रेम का प्याला सजाओ।