जिंदगी मुझे अब अजनबी लगने लगी है
दोस्तों,
एक मौलिक ग़ज़ल.आपकी मुहब्बतों की नज़र,,,,!!!!
ग़ज़ल
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जिंदगी मुझे अब अजनबी लगने लगी है,
वो मुझे जरा अब शायद समझने लगी है।
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मैं नही मौक़ापरस्त वो,ये जानकर शायद,
आज कल लगता है मुझे परखने लगी है।
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किरदार अटल है वो चाहती बदल जाऊँ,
आख़िर क्यूँ नब्ज़ उसकी धड़कने लगी है।
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रोज दस्तक देती है दुनिया में आकर मेरी,
क्या गुनाह, जो राहें मेरी खटकने लगी है।
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बेवजह, तक़लीफ़ देख रही है न जाने क्यूँ,
हौसले की दीवार जैसे मेरी दरकने लगी है।
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मस्त हूँ मैं अपने ख़्याल में हर तरह “जैदि”
जानिब-ए-मेरी क्यूँ हयात भटकने लगी है।
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मायने:-
जानिब-ए-मेरी:-मेरी-ओर
हयात:-जिंदगी
शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”